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assignment ka arth kya hai

Assignment meaning in hindi

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नारीवाद क्या है? नारीवाद का अर्थ एवं परिभाषा (Feminism)

social worker

  • मई 30, 2024
  • Social Work
  • नारीवाद का परिचय :-

नारीवाद वह है जो महिलाओं के सशक्तिकरण की तलाश करता है और जिनके लिए पितृसत्ता सशक्तिकरण के इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। उदारवादी नारीवादियों, रेडिकल और सांस्कृतिक नारीवादियों या समाजवादी और मार्क्सवादी नारीवादियों में महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने वालों का वर्गीकरण न केवल इस एकता के महत्व को कम आंकता है बल्कि यह भी गलत तरीके से प्रस्तुत करता है कि नारीवाद की विचारधारा उदारवाद और समाजवाद के लिए केवल एक सहायक है।

यह ऐतिहासिक रूप से सही नहीं है। वास्तव में, उदारवाद और समाजवाद की महिलाओं के अधिकारों को संबोधित करने में विफलता की पृष्ठभूमि के खिलाफ नारीवाद का उदय हुआ है।

नारीवाद की अवधारणा :-

नारीवाद का अर्थ :-, नारीवाद की परिभाषाएं :-, महिलाएं यौन प्राणी नहीं हैं, वे इंसान हैं –, समान अधिकार और समान अवसर –, एक पति एक पत्नी विवाह का विरोध –, महिलाओं की पारंपरिक भूमिका में बदलाव –, महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता –, परिवार संस्था का विरोध –, बच्चों की सार्वजनिक देखभाल –, पितृसत्ता का विरोध –, नारी एक उत्पीड़ित वर्ग है –, लैंगिक स्वतंत्रता –, उदारवादी नारीवाद –, समाजवादी नारीवाद –, मार्क्सवादी नारीवाद –, रेडिकल नारीवाद –, अराजकतावादी नारीवाद –, पारिस्थितिक नारीवाद –, उदारपंथी नारीवाद –, संक्षिप्त विवरण :-.

नारीवाद एक गतिशील और लगातार बदलती विचारधारा है जो महिला उत्पीड़न के विभिन्न पहलुओं को समझने की दिशा में प्रयास कर रही है जिसमें उदारवादी नारीवाद, मार्क्सवादी-समाजवादी नारीवाद और रेडिकल नारीवाद तीन उल्लेखनीय विचारधाराएँ हैं। लेकिन एक विचार जो इन सभी नारीवादी दृष्टिकोणों में समान है, वह यह है कि यह सभी मौजूदा स्त्री-पुरुष संबंधों को बदलने की ओर केंद्रित है। दूसरे शब्दों में, ये सभी विचारधाराएँ इस तथ्य से उपजी हैं कि न्याय के आधार पर महिलाओं को स्वतंत्रता और समानता देना आवश्यक है।

नारीवाद परिप्रेक्ष्य ने स्वतंत्रता और समानता के लोकतांत्रिक मूल्यों और महिलाओं की अधीनता के बीच अंतर्विरोध को रेखांकित किया है। जिसमें लिंग परिवार और समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति, महिलाओं की समानता, कानूनी सुधारों की मांग, समानता आदि पर नारीवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता रहा है।

गर्डा लर्न के अनुसार – नारीवादी अध्ययनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती उन विभिन्न रूपों और परिस्थितियों की पहचान करना है जिनमें पितृसत्ता विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न अवधियों में उभरती है और वे कौन सी विशेषताएं हैं जो पितृसत्तात्मक संरचनाओं को विशिष्ट रूप देती हैं।

नारीवाद को और भी स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं –

“महिलाओं की बनिस्बत नारीवाद का दृष्टिकोण है क्योंकि सर्वहारा वर्ग के अनुभव की तरह, एक दमित समूह होने के नाते महिलाओं के अपने अनुभवों और गतिविधियों में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू होते हैं। नारीवादी दृष्टिकोण इन अनुभवों में निहित मुक्ति की संभावनाओं को चुनकर उनका विस्तार करता है।” हार्डस्टॉक
“नारी पुरुष प्रधान समाज की कृति है। वह नारीवाद और समाज, अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए, जन्म से ही महिला को कई नियमों के ढांचे के भीतर एक अंतर्संबंध में ढालता चला गया है।” सीमोन द बोउवार

नारीवाद की विशेषताएं :-

नारीवाद की विशेषताएं इस प्रकार हैं:-

नारीवाद का विचार है कि महिलाएं सिर्फ यौन प्राणी नहीं हैं और महिलाओं को केवल मां, पत्नी और बहन के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि सामान्य इंसान के रूप में देखा जाना चाहिए।

नारीवादियों का मानना है कि महिलाओं में पुरुषों के समान क्षमता और बुद्धि होती है और वे सभी कार्य करने में सक्षम होती हैं जो पुरुष करते हैं। महिलाओं को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों की अधीनता को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि उन्हें पुरुषों के समान विकास के अवसर प्रदान नहीं किए जाते हैं।

महिलाओं और पुरुषों को जीवन के हर क्षेत्र में समान अधिकार दिए जाने चाहिए और सभी को सम्मान के अवसर उपलब्ध होने चाहिए। नारीवाद के समर्थकों का विचार है कि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार होने चाहिए।

महिलाओं को भी पुरुषों की तरह स्वतंत्र रूप से अपना जीवन जीने, अपनी पसंद के अनुसार कोई भी व्यवसाय अपनाने, संपत्ति रखने और विवाह करने और तलाक लेने का अधिकार होना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में भी मताधिकार करने, चुनाव लड़ने और उच्च सरकारी पदों पर आसीन होने का अधिकार होना चाहिए। नौकरी के मामले में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।

नारीवादी विचारक एक पति -एक पत्नी विवाह की प्रथा के खिलाफ है। उनका मानना है कि इस प्रथा के तहत महिला अपने पति की गुलाम बनी रहती है और अपना सारा जीवन पति की सेवा, बच्चों की परवरिश और घर के अन्य कामों में लगा देती है। अतः महिलाओं को इस दासता की प्रथा से मुक्त करने के लिए इस प्रथा को समाप्त करना होगा।

नारीवादियों का मानना है कि परंपरागत विचारधारा के अनुसार महिलाएं घर का काम करने, पति की सेवा करने, बच्चे पैदा करने और उनका पालन-पोषण करने आदि के खिलाफ हैं। महिलाओं की यह भूमिका दैवीय नहीं बल्कि पुरुषों द्वारा बनाई गई है। इस प्रकार, जब तक महिलाएँ स्वतंत्र नहीं होंगी, तब तक उनकी भूमिका नहीं बदली जा सकती।

महिलाओं पर पुरुषों के प्रभुत्व का मुख्य कारण यह है कि महिलाओं की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता है। यदि महिलाओं को शिक्षित कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाए तो उन्हें पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा और वे स्वतंत्र रूप से जीवन यापन कर सकेंगी। पुरुषों की तरह, महिलाओं को भी शिक्षित किया जाना चाहिए और उन्हें उद्योग और नौकरी या अन्य व्यवसायों जैसे चिकित्सा, वकालत, इंजीनियरिंग आदि करने में सक्षम बनाया जाना चाहिए।

महिलाओं की अधीनता और उत्पीड़न में परिवार की संस्था को एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। परिवार में महिलाओं की भूमिका घर की चार दीवारी तक सीमित कर दी गई है, इसलिए महिलाओं को अपनी क्षमताओं के विकास का पूरा अवसर नहीं मिल पाता है। इतना ही नहीं, परिवार में बच्चों का समाजीकरण भी इस प्रकार किया जाता है कि पुरुष स्त्री पर हावी रहता है। परिवार द्वारा लड़कियों की तुलना में लड़कों को भी हर क्षेत्र में अधिक प्राथमिकता दी जाती है।

कुछ नारीवादी समर्थकों का मानना है कि बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी समाज की होनी चाहिए। महिला प्रसूति गृहों एवं बाल पोषण गृहों तथा शिशुओं के उपचार की समुचित व्यवस्था हो। इसमें बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी प्रशिक्षित नर्सों को सामूहिक रूप से निभानी चाहिए।

नारीवादी विचारक पितृसत्ता को महिलाओं के शोषण, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार का कारण माना जाता है। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष स्त्री पर अपना वर्चस्व स्थापित करता है और उसे निर्देश देता है। नारीवाद के समर्थक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं।

नारीवादियों का मानना है कि महिलाएं समाज का उत्पीड़ित वर्ग हैं और वे लगभग सभी समाजों में शोषण की शिकार हैं। परंपरागत रूप से, पैतृक संपत्ति में उनका कोई कानूनी अधिकार नहीं था। वे पुरुषों से पीछे थीं, संपत्ति की मालकिन भी नहीं बन सकीं, न ही नौकरी आदि करके आत्मनिर्भर बन सकीं।

आज भी अधिकांश महिलाएं अपने पारंपरिक कार्यों में व्यस्त हैं जैसे घर का काम करना, बच्चे को जन्म देना और उसका पालन-पोषण करना और घर में सभी की सेवा करना आदि। । अधिकांश महिलाएं आज भी अपनी आवश्यकता ओं के लिए आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर हैं।

कुछ उग्र नारीवादियों का मानना है कि काम वासना की पूर्ति एक निजी पहलू है जिसमें समाज को तब तक दखल नहीं देना चाहिए जब तक कि दूसरे को नुकसान न हो। इसलिए स्त्री को अपनी इच्छा के अनुसार यौन संबंध जोड़ने और तोड़ने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

नारीवाद के प्रकार :-

अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में उदारवादी नारीवादियों ने मानवीय गरिमा और समानता की उदार धारणाओं और महिलाओं के जीवन की वास्तविक वास्तविकता के बीच विरोधाभासों को जोरदार ढंग से सामने रखा था।

उदारवादी नारीवाद उदारवाद की दार्शनिक परंपराओं का पालन करता है। १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर १८वीं शताब्दी के परवर्ती काल तक, पश्चिमी दुनिया फलते-फूलते सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का उत्पाद थी। विज्ञान में प्रगति और जीव विज्ञान , भूगोल और भौतिकी में नई खोजों और वैज्ञानिक कानूनों आदि के संदर्भ में प्रगति के कारण तर्क को परंपरा से अधिक महत्व दिया गया। परिवर्तन के इस काल को विवेक का युग और ज्ञान का युग कहा गया।

उदारवादी नारीवाद ने उन आम धारणाओं को सफलतापूर्वक सामने लाया जो परिवार और समाज में महिलाओं की दोयम दर्जे को सही ठहराती हैं। उन्होंने महिलाओं के सार्वजनिक जीवन में शामिल होने के अधिकार की वकालत की और मानव के रूप में उनकी समग्र क्षमताओं को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करने की मांग की। उदारवादी नारीवाद ने महिलाओं की असमानता और अधीनता को रेखांकित किया है।

समाजवादी नारीवादियों ने बताया कि कैसे पूंजीवादी पितृसत्ता में महिलाएं समाज के पुनरुत्पादन के लिए महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। प्रति सप्ताह इतने लंबे समय तक काम करने के बावजूद महिलाओं को पुनरुत्पादन के संबंध में इसके लिए वेतन या किसी अन्य तरीके से कोई मुआवजा नहीं मिलता है। यह स्पष्ट था कि इस श्रम को उत्पादक या अनुत्पादक श्रम के रूप में वर्गीकृत किया जाए या लिंग प्रभावित उत्पादन कहा जाए, यह एक प्रकार का शोषण था। समाजवादी नारीवादियों का दावा है कि पुनरुत्पादन के संबंधों की विषय संरचना महिलाओं के अलगाव को जन्म देती है।

मार्क्सवादियों ने तर्क दिया कि जबकि पूंजीवाद आमतौर पर संबंधों को वस्तुनिष्ठ बनाता है, यह घरेलू अनुत्पादक श्रम का निजीकरण कर रहा था। उन्होंने बिना महिलाओं के उजरती श्रम को पूंजी संचय की प्रक्रिया से जोड़कर इसे समझने की कोशिश की। पूंजीपतियों के मुनाफे की दर वहां तेज होती है जहां घरेलू श्रम अदृश्य होता है और जब श्रमिकों की मजदूरी तय होती है, तो पूंजीपति श्रमिकों के पुनरुत्पादन में इसके योगदान की उपेक्षा कर सकते हैं।

मार्क्स इस श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन के महत्व से अवगत थे, लेकिन उनका मानना था कि यह पुनरुत्पादन मुख्य रूप से बाजार में आता है जहां श्रमिक अपनी मजदूरी का उपयोग भोजन और जीवन की अन्य आवश्यकताओं के लिए करता है।

समाजवादी और मार्क्सवादी नारीवादियों के लिए पितृसत्ता को इस तरह समझने का सवाल मार्क्सवादी धारणाओं से ही संभव था। यह सवाल अब भी कायम है कि क्या महिलाओं के शोषण को मजदूर वर्ग के शोषण के मॉडल के रूप में समझा जा सकता है।यह स्पष्ट था कि जिस प्रकार पूंजीपति अत्यधिक मूल्य के शोषण के माध्यम से श्रमिकों का शोषण करता है, उसी प्रकार पुरुषों को बिना किसी मुआवजे के महिलाओं के घरेलू श्रम से लाभ होता है।

रेडिकल नारीवाद सिद्धांत 1970 के दशक से विकसित हुआ है, लेकिन इसके अंतर्निहित प्रमुख विषयों और बहसों का स्रोत इन अग्रणी कार्यों में पाया जा सकता है। इसके अलावा, रेडिकल नारीवाद का विस्तार समलैंगिक नारीवाद, विषमलैंगिकता और पारिस्थितिक नारीवाद के क्षेत्रों में भी हुआ है।

रेडिकल नारीवाद इस बात से सहमत है कि लिंग आधारित लिंग अंतर हमारे जीवन के लगभग हर पहलू की संरचना करते हैं और इतने सर्वव्यापी हैं कि वे आमतौर पर किसी का ध्यान नहीं जाते हैं। रेडिकल नारीवाद का उद्देश्य लिंगों के बीच सभी अंतरों को उजागर करना है, जो न केवल जैसे क्षेत्रों में परस्पर संबंधित हैं कानून, रोजगार बल्कि हमारे व्यक्तिगत संबंधों में भी। उनका दायरा घर और खुद के बारे में आत्मसात करने की धारणाओं तक फैला हुआ है।

रेडिकल नारीवाद दिखाता है कि कैसे समकालीन समाज संरचना में लिंग आधारित अंतर समग्र जीवन की संरचना करता है, यानी न केवल पुरुष और महिलाएं अलग-अलग कपड़े पहनते हैं, अलग-अलग खाते हैं, काम पर और घर पर या खाली समय में अलग-अलग गतिविधियों में संलग्न होते हैं। इसलिए, विभिन्न प्रकार के सामाजिक संबंध और यहाँ तक कि यौन संबंध भी स्थापित हो जाते हैं।

उदारवादी नारीवाद, मार्क्सवादी-समाजवादी नारीवाद और उग्र नारीवाद तीन उल्लेखनीय विचारधाराएँ हैं जिनके बारे में बहुत बात की जाती है। इसके अलावा, अश्वेत नारीवाद है जो इन विचारधाराओं से व्यापक स्वायत्तता का दावा करती है, जिसका वास्तव में अर्थ है कि ये विचारधाराएँ जाति-आधारित शोषण की उपेक्षा करती हैं।

अराजकतावादी नारीवादियों ने भी अपने अलग-अलग मतभेदों को बनाए रखा है और अराजकतावाद के अधिनायकवादी विरोधी तर्क में विश्वास करते हैं। इसी तरह, पर्यावरण संबंधी नारीवादी महिलाओं को प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी के बारे में चिंताओं से जोड़ती हैं।

पारिस्थितिक नारीवाद एक सक्रिय और शैक्षिक आंदोलन है जो दर्शाता है कि महिलाओं के शोषण और प्रकृति के शोषण के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध है। पारिस्थितिक नारीवाद का विचार पहली बार फ्रांसीसी नारीवाद में दिया गया था जब नारीवाद की तीसरी लहर चल रही थी। हालाँकि, जो पारिस्थितिक नारीवाद की श्रेणी को विभक्त किया गया है वह एक विवादास्पद बिंदु है।

कैटजेन वारेन ने लिखा है- नारी के शोषण और प्रकृति के शोषण के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध है। पारिस्थितिक नारीवाद 1980 के दशक से 1990 के दशक तक फला-फूला जब पर्यावरण और समलैंगिक आंदोलन हो रहे थे।

हर जगह मौजूद पर्यावरण का विनाश – वर्ग, नस्ल, लिंग – पारिस्थितिक नारीवाद का सम्मेलन कार्य है जो इन दोनों को जोड़ता है। सांस्कृतिक, पारिस्थितिक नारीवाद प्रकृति को एक पुराने और पारंपरिक तरीके से एक देवी के रूप में देखता है। कुछ नारीवाद इसे आध्यात्मिक रूप से भी जोड़ते हैं।

उदारवादी और समाजवादी/मार्क्सवादी नारीवादी विचारधाराओं दोनों ने समलैंगिकता वाद और अलगाववाद (पुरुष-से-अलगाववाद) जैसे अत्यंत उग्र प्रस्तावों के लिए आलोचना की है। इसके अलावा, समाजवादी/मार्क्सवादी नारीवादियों का तर्क है कि रेडिकल नारीवाद पितृसत्ता के ऐतिहासिक, आर्थिक और भौतिक आधार की उपेक्षा करता है और परिणामस्वरूप एक गैर-ऐतिहासिक, जैविक नियतत्ववाद के तर्क में फंसा रहता है।

नारीवाद महिलाओं का सशक्तिकरण चाहता है।  नारीवाद के परिप्रेक्ष्य ने स्वतंत्रता और समानता के लोकतांत्रिक मूल्य और महिला की अधीनता के बीच विरोधाभास को रेखांकित किया है। जिसमें लिंग परिवार और समाज में महिलाओं की दोयम प्रस्थिति , महिलाओं की समानता, कानूनी सुधारों की मांग, समानता आदि पर एक नारीवादी दृष्टिकोण लेता है।

नारीवाद किसे कहते हैं?

नारीवाद एक गतिशील और लगातार बदलती विचारधारा है जो महिला उत्पीड़न के विभिन्न पहलुओं को समझने की दिशा में प्रयासरत है।

नारीवाद की विशेषताएं बताइए?

  • महिलाएं यौन प्राणी नहीं हैं, वे इंसान हैं
  • समान अधिकार और समान अवसर
  • एक पति एक पत्नी विवाह का विरोध
  • महिलाओं की पारंपरिक भूमिका में बदलाव
  • महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता
  • परिवार संस्था का विरोध
  • बच्चों की सार्वजनिक देखभाल
  • पितृसत्ता का विरोध
  • नारी एक उत्पीड़ित वर्ग है
  • लैंगिक स्वतंत्रता

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Hi, I Am Social Worker इस ब्लॉग का उद्देश्य छात्रों को सरल शब्दों में और आसानी से अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराना है।

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शिक्षण विधि का अर्थ एवं परिभाषा | शिक्षण विधि के विभिन्न प्रकार

शिक्षण विधि का अर्थ एवं परिभाषा

Table of Contents

शिक्षण विधि का अर्थ एवं परिभाषा देते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन

जब व्यक्ति किसी कार्य को करने का मन बनाता है तो सर्वश्रथम उस कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए उसके तरीके के बारे में चिन्तन करता है अथवा विचार करता है। यदि कार्य बिना साचे ही शुरू कर दिया जाये तो सफलता असम्भव है। ठीक उसी प्रकार शिक्षक शिक्षण कार्य करने से पूर्व यह निर्धारित करता है कि किस पाठ अथवा प्रकरण को किस विधि से पढ़ाया जाये। वैसे इसका कोई नियम निर्धारित नहीं है यह तीन बातों पर निर्भर करता है-

  • विषय वस्तु की प्रकृति
  • अध्यापक का व्यक्तित्व तथा
  • अध्यापक का विषय वस्तु पर नियंत्रण

इस प्रकार विधि तो एक माध्यम है शिक्षक की विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण का वह भी सरल, सुगम एवं सजीव। एक शिक्षण विधि एक अध्यापक के लिए उपयुक्त है यह आवश्यक नहीं कि वही विधि उसी प्रकरण हेतु दूसरे अध्यापक को भी उपयोगी सिद्ध हो सकती है। अथवा यह प्रकरण को जिस विधि से पढ़ाया है आवश्यक नहीं कि वही शिक्षक दूसरे प्रकरण को भी उसी विधि से पढ़ाये। जैसे कि ऊपर बताया जा चुका है कि यह तीन बातों पर निर्भर करता है- विषय वस्तु की प्रकृति, अध्यापक का व्यक्तित्व एवं विषय वस्तु पर अध्यापक का नियंत्रण। अर्थात् प्रत्येक शिक्षक को शिक्षण विधियों का ज्ञान होना आवश्यक है।

शिक्षण विधियों से अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने हेतु विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार है-

डी.वी ( Dewey) के अनुसार “पद्धति वह तरीका है जिसके द्वारा हम पठन सामग्री का व्यवस्थित करके, निष्कर्षों की प्राप्ति करते हैं।”

बाईनिंग ( Bining) मानते हैं कि “शिक्षण विधि शिक्षा प्रक्रिया का गतिशील कार्य है।”

‘हरबर्ट वार्ड एवं रोस्को’ ( Herbart Ward and Rusco) के अनुसार, “यह सत्य है कि उत्तम विधि मात्र कत्रिम अथवा यांत्रिक प्रणालियों का योग नहीं है तथा प्रत्येक शिक्षक को स्वय अपनी शिक्षण विधि को आविष्कृत करना चाहिए। यह स्मरणीय है कि उत्तम शिक्षण विधि कुछ निश्चित एवं व्यापक सिद्धान्तों के अनवरत निरीक्षण के परिणाम स्वरूप ही जन्म ले सकती है। इसके अंतर्गत शिक्षण की व्यवस्थित प्रणाली एवं विषय वस्तु की क्रमबद्धता का समावेश होता है जिसके परिणाम स्वरूप समय एवं शक्ति की बचत होती है। इसके द्वारा विषय वस्तु की महत्ता के अनुसार वर्गीकरण करना सम्मव हो सकेगा और इसके द्वारा छत्रों का अधिकतम सहयोग होगा तथा उनकी अध्ययन कार्य में सक्रिय रुचि बनी रहेगी।”

डॉ. सरोज सक्सेना ( Dr. Sexena, Saroj) के अनुसार, “वास्तव में शिक्षण विधि विषय सामग्री को छात्रों तक पहुंचाने का एक माध्यम या उद्देश्य है जो उद्देश्य प्राप्ति में भी अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करती हैं।”

अतः यह कहा जा सकता है कि शिक्षण विधि के द्वारा शिक्षक कठिन से कठिन प्रत्ययों को भी सरल, सरस एवं बोधगम्य बना सकता है। अतः शिक्षक के लिए शिक्षण विधियों की जानकारी अति आवश्यक है।

शिक्षण विधियों का वर्गीकरण ( Classification of Teaching Method)-

विभिन्न शिक्षाविदों ने शिक्षण विधियों का अलग-अलग वर्गीकरण किया

(1) ‘रूसो’ के अनुसार-व्यक्ति का सीखना चार प्रकार से होता है यथा-

(i) कर के सीखना (learning by Doing)

(ii) प्रयोग द्वारा सीखना (Learning by Experimentation)

(iii) निरीक्षण द्वारा सीखना (Learning by Observation)

(iv) खोज द्वारा सीखना (Learning by Discovery)

(2) ‘पैस्टॉलाजी’ के अनुसार-पैस्टॉलाजी रूसो से सहमत नहीं हैं वे मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों को ही उपयुक्त मानते हैं।

(3) ‘हरबर्ट’ के अनुसार- “ये पैस्टालांजी से सहमत हैं। इन्होंने सामान्य विधि का सूत्रपात किया जिसके चार पद निर्धारित किये।

(i) स्पष्टता (Clearness)

(ii) सम्बन्ध (Association)

(iii) व्यवस्था (System)

(iv) विधि (Method)

लेकिन इनके शिष्य जिलर (Zilar) इनसे सहमत नहीं थे। उन्होंने इसके प्रथम पद स्पष्टता को दो भागों में विभक्त किया है। कालान्तर में अन्य शिस्यों ने भी इसमें परिवर्तन किये।

इस प्रकार हरबार्ट के चारों पदों के मूलरूप बिल्कुल परिवर्तित हो गये और उसके पदों को अन्तिम रूप अग्र प्रकार दिया गया-

  • (A) प्रस्तावना (Preparation)

(B) उद्देश्य कथन (Statement of aitn)

  • प्रस्तुतीकरण (Presentation)
  • तुलना (Comparison )
  • सामान्यीकरण (Gcneralization)
  • (Application),

इस प्रकार विभिन्न शिक्षाशास्त्री शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में एक मत नही हैं। सामान्यतः शिक्षण विधियां दो प्रकार की होती हैं-

(1) परम्परागत शिक्षण विधि (Traditional teaching method)

(2) आधुनिक शिक्षण विधि (Modern teaching method)

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  • Political Science /

लोकतंत्र क्या है: अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, अवधारणा, गुण, दोष

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  • Updated on  
  • फरवरी 14, 2024

Loktantra Kya Hai

विद्यार्थी जीवन में अक्सर एक प्रश्न बड़ा सामान्य होता है कि लोकतंत्र क्या है? इस प्रश्न का उत्तर अगर आसान भाषा में ढूंढें तो यह कुछ इस प्रकार होगा कि “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन” ही लोकतंत्र कहलाता है। लोकतंत्र शब्द बोलने में जितना सरल है उतना ही गहरा और गंभीर इसका अर्थ होता है। लोकतंत्र को डेमोक्रेटिक भी कहा जाता है, जो कि यूनानी भाषा के डेमोस (Demos) और कृतियां (Cratia) से मिलकर बना है। इसका अर्थ होता है लोग और शासन, शाब्दिक अर्थ में जनता का शासन। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो प्रजातंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है, जिसके अंतर्गत जनता अपनी इच्छा से निर्वाचन में आए हुए किसी भी दल को, अपना वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुन सकती है और उनकी सरकार बना सकती है। इस ब्लॉग के माध्यम से आप loktantra kya hai से संबंधित संपूर्ण अथवा विस्तृत जानकारी प्राप्त कर पाएंगे।

This Blog Includes:

कई विचारों के अनुसार प्रजातंत्र क्या है, प्रजातंत्र से जुड़ी शब्दावली, प्रजातंत्र की परिभाषा, लोकतांत्रिक सरकार क्या है, स्वतंत्र, निष्पक्ष और लगातार चुनाव, अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व, संवैधानिक कानून के भीतर नियम, भाषण, अभिव्यक्ति और पसंद की स्वतंत्रता, संघीय अधिकार, परिषद की जिम्मेदारी, शिक्षा का अधिकार, संघ और संघ बनाने का अधिकार, सभी के लिए समान कानून, न्यायपालिका पर कोई नियंत्रण नहीं, लोकतन्त्र की अवधारणा, लोकतंत्र के पक्ष में तर्क, लोकतंत्र के विपक्ष में तर्क, विशुद्ध या प्रत्यक्ष लोकतंत्र, प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र, प्रजातंत्र के रूप, लोकतंत्र की सीमाएं क्या है, लोकतंत्र के मुख्य सिद्धांत , लोकतंत्र के गुण, लोकतंत्र के दोष, एक लोकतांत्रिक सरकार के फायदे और नुकसान, भारत में लोकतंत्र, केंद्र सरकार में सदनों का विभाजन, भारत में पार्टियों के प्रकार, लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तें, लोकतंत्र का महत्व, लोकतंत्र और तानाशाही के बीच अंतर क्या हैं, लोकतंत्र को तानाशाही से बेहतर क्यों माना जाता है, लोकतंत्र कक्षा 10, लोकतंत्र कक्षा 9, लोकतंत्र क्या है.

loktantra kya hai का जवाब जानने से पहले आपको इसके इतिहास के बारे में जान लेना चाहिए। इसके इतिहास पर प्रकाश डाला जाए तो अरस्तू ने प्रजातंत्र को एक विकृत शासन प्रणाली बताया था, जिसमें बहु संख्या निर्धन वर्ग अपने वर्ग के हित के लिए शासन पर आता है और भीडतंत्र का रूप धारण कर लेता है। साथ ही अरस्तू के अनुसार लोकतंत्र को राजनीति के नाम से जाना जाता है। लोकतंत्र “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है”। लोकतंत्र केवल राजनीतिक ,सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का प्रकार ही नहीं बल्कि जीवन के प्रति विशेष दृष्टिकोण का भी नाम है। प्रजातंत्र में सभी व्यक्तियों को एक दूसरे के प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा व्यवहार वह अपने प्रति पसंद करते हैं।

Loktantra kya hai इसको कुछ लोकप्रिय व्यक्तियों के विचारों से समझते हैं-

  • ऐसी सरकार जहां की जनता शक्तिशाली हो।
  • बहुत सारे लोगों का शासन।
  • जनता का जनता के द्वारा जनता के लिए, इसे लोकतंत्र कहा जाता है-अब्राहम लिंकन।
  • जिसमें जनता की सहभागिता हो उसे लोकतंत्र कहा जाता है-सिले।
  • राज्य के शासन शक्ति समुदाय में एक सम लिस्ट के रूप में निहित, इसे लोकतंत्र कहा जाता है- ब्राइस।
  • तर्कबुद्धिवादी लोकतंत्र –> सिमोन चैम्बर्स
  • संघर्षपूर्ण लोकतंत्र –> फिलिप पेटिट
  • विमर्शी लोकतंत्र –> जॉन ड्राइजेक
  • संचरीय लोकतंत्र –> आइरिश मेरियन यंग

Loktantra kya hai जानने के साथ-साथ यह जानना भी आवश्यक है कि प्रजातंत्र के इतने रूप हैं कि इसकी एक निश्चित परिभाषा देना बहुत ही कठिन है। समय, परिस्थितियों, विभिन्न हितों की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न युगों के विचारकों ने लोकतंत्र की विभिन्न परिभाषाएं दी गई हैं।

loktantra kya hai

निम्नलिखित परिभाषा और को ध्यान से देखें:

  • यूनानी दार्शनिक वलीआन के अनुसार ने लोकतंत्र की यह परिभाषा दी है कि, “लोकतंत्र वह होगा जो जनता का, जनता के द्वारा हो, जनता के लिए हो।”
  • लावेल के अनुसार यह परिभाषा दी है कि, “लोकतंत्र शासन के क्षेत्र में केवल एक प्रयोग है।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इस परिभाषा को इस प्रकार दोहराया है यह बताया है कि “लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा शासन है।”
  • लॉर्ड ब्राइस यह परिभाषा दी है कि, “प्रजातंत्र वह शासन प्रणाली है, जिसमें की शासन शक्ति एक विशेष वर्ग या वर्गों में निहित ना रहकर समाज के सदस्य में निहित होती है।”
  • जॉनसन यह परिभाषा दी है कि, “प्रजातंत्र शासन का वह रूप है जिसमें प्रभुसत्ता जनता में सामूहिक रूप से निहित हो।”
  • सिले ने यह परिभाषा दी है कि, “प्रजातंत्र वह शासन है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का भाग होता है।”
  • ऑस्टिन यह परिभाषा दी है कि, “प्रजातंत्र वह शासन व्यवस्था है जिसमें जनता का अपेक्षाकृत बड़ा भाग शासक होता है।”
  • सारटोरी यह परिभाषा दी है कि, “लोकतंत्रीय व्यवस्था वह है जो सरकार को उत्तरदायी तथा नियंत्रणकारी बनाती हो तथा जिसकी प्रभावकारिता मुख्यत: इसके नेतृत्व की योग्यता तथा कार्यक्षमता पर निर्भर है।”

लोकतंत्र क्या है

प्रजातंत्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। लोकतांत्रिक सरकार का तात्पर्य है कि ऐसी सरकार जिसे जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के हित में चुना जाता है उसे ही लोकतांत्रिक सरकार कहते हैं।

प्रजातंत्र की विशेषताएं

Loktantra kya hai जानने से पहले यह भी जानिए कि प्रजातंत्र की विशेषताएं क्या हैं, जैसे कि-

  • व्यस्क मताधिकार
  • जनता की इच्छा सवोचच है।
  • उत्तरदाई सरकार।
  • जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सरकार
  • बहुमत द्वारा निर्णय
  • निष्पक्ष तथा समय बधद चुनाव
  • सरकार के निर्णय में सलाह दबाव तथा जनमन द्वारा जनता का हिस्सा
  • निष्पक्ष न्यायपालिका तथा विधि का शासन
  • विभिन्न राजनीतिक दलों तथा दबाव समूह की उपस्थिति
  • समिति तथा संवैधानिक सरकार
  • जनता के अधिकार तथा स्वतंत्रता की रक्षा सरकार का कर्तव्य होना

प्रजातंत्र की प्राथमिक विशेषताओं के बीच, दुनिया के प्रत्येक लोकतांत्रिक देश को किसी न किसी रूप में और वह भी समय-समय पर चुनाव कराना चाहिए। ये चुनाव जनता की आवाज हैं, प्राथमिक तरीका जिसके द्वारा वे अपनी इच्छा के अनुसार सरकार को नियंत्रित और बदल सकते हैं। इन चुनावों में भी देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार प्रदान करने के संदर्भ में पूरी पारदर्शिता और निष्पक्षता होनी चाहिए।

जाति, लिंग, जाति, पंथ, राजनीतिक विचार, जनसांख्यिकीय या किसी अन्य संरचनात्मक अंतर या भेदभाव के आधार पर कोई पक्षपात या उत्पीड़न नहीं होना चाहिए। प्रत्येक वोट का मूल्य होना चाहिए, और प्रत्येक वोट का एक मूल्य होना चाहिए, अर्थात इसे निर्वाचित प्रतिनिधियों में समान महत्व रखना चाहिए। इस मानदंड को पूरा करना हर लोकतंत्र के लिए सर्वोपरि है, क्योंकि आज भी कुछ देश महिलाओं या वैकल्पिक कामुकता वाले लोगों को मतदान का अधिकार नहीं देते हैं। यह उन्हें मौलिक स्तर पर लोकतंत्र होने से अयोग्य ठहराता है और चुनाव की भावना को अर्थहीन बनाता है।

दुनिया के हर देश में किसी न किसी आधार पर अल्पसंख्यक हैं। अपने प्रत्येक देशवासियों को समान नागरिकता का अधिकार देना लोकतंत्र की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। अल्पसंख्यकों के बहिष्कार या उत्पीड़न से घृणा की जानी चाहिए, और देश के कानूनी अधिकार को हर संभव तरीके से जीवन और आजीविका की समान स्थिति रखने में उनकी सहायता करनी चाहिए। दुनिया भर के कुछ लोकतंत्र अल्पसंख्यक समूहों के लिए उनकी जनसंख्या के आकार के अनुपात में प्रतिनिधि पदों को आरक्षित करते हैं जबकि शेष पदों को विवाद के लिए मुक्त रखते हैं।

एक लोकतांत्रिक देश में सत्ताधारी सरकार सर्वोपरि नहीं होती है। इसके बजाय, यह विधायी निकाय है जो देश के संविधान द्वारा निर्धारित सर्वोच्च शक्ति रखता है। चूंकि एक नई सरकार एक निश्चित अवधि के बाद चुनी जाती है, उसके पास केवल कुछ स्थापित कानूनों में संशोधन करते हुए निर्णय लेने और उन्हें लागू करने की शक्तियां होती हैं। ऐसी सभी गतिविधियाँ देश के कानून की देखरेख में ही की जा सकती हैं, जो सत्ताधारी सरकार से स्वतंत्र होती है और देश के लोगों द्वारा उनकी योग्यता और कौशल के आधार पर पदों पर कब्जा किया जाता है।

एक प्रजातंत्र जो जनता की आवाज को दबाता या रोकता है, वह वैध नहीं है, लोकतंत्र की बुनियादी विशेषताओं में से एक का उल्लंघन करता है। जनता की आवाज, भले ही वह सत्ताधारी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण हो, को स्वतंत्र रूप से बहने देना चाहिए, लोगों को उत्पीड़न के डर के बिना, अपने विचारों और अभिव्यक्तियों को तैयार करने देना चाहिए। उसी तर्ज पर, एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक को अपने विवेक के आधार पर स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिए, जब तक कि वे देश के कानूनों या किसी अन्य व्यक्ति के लिए खतरा पैदा न करें। कार्यों की यह स्वतंत्रता ही लोकतंत्र को फलदायी बनाती है। किसी व्यक्ति को जो गलत लगता है उसका विरोध करना एक कानूनी अधिकार होना चाहिए, क्योंकि मूल रूप से यही एकमात्र चीज है जो सत्ताधारी दलों को उनके कार्यों और नीतियों से रोके रखती है।

प्रजातंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक राज्य सरकार को स्वतंत्र रूप से प्रदर्शन करने और जनता के लाभ के लिए नियमों और विनियमों को लागू करने का अधिकार देता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 राज्यों को केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बिना कुछ निर्णय लेने की अनुमति देता है। यदि कोई कानून केंद्र सरकार द्वारा पारित किया जाता है तो हर राज्य को उसका पालन करना होता है।

आम जनता के हित और हित में काम करना चुनी हुई सरकार का कर्तव्य और जिम्मेदारी है। निर्वाचित पार्टी की पूरी परिषद उनके सत्र के तहत किए गए सभी कृत्यों के लिए जिम्मेदार है, न कि केवल एक नेता। प्रजातंत्र पूरे परिषद द्वारा निर्णय लेने की अनुमति देता है, न कि किसी एक व्यक्ति को।

प्रजातंत्र सभी नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देता है। शिक्षा में जाति, रंग, पंथ या नस्ल के आधार पर कोई पक्षपात नहीं है और भारत के प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। यह अधिनियम 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को बुनियादी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति देता है।

भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है जो सभी व्यक्तियों को अपने स्वयं के संघ या संघ बनाने की अनुमति देता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1) सभी भारतीय नागरिकों को “संगठन, या संघ या सहकारी समितियां बनाने का अधिकार प्रदान करता है” यह प्रत्येक व्यक्ति के मूल अधिकारों में से एक है और समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ संवाद करने की आवश्यकता है या समाज।

प्रजातंत्र समाज में समानता देता है यानि सभी के लिए समान अधिकार और कानून। किसी भी सेलिब्रिटी, राजनेता या सरकारी निकाय के साथ विशेष व्यवहार नहीं किया जाएगा। देश के आम लोगों पर लागू कानून मशहूर हस्तियों या प्रसिद्ध व्यक्तियों पर भी लागू होगा। भारत में हर परिस्थिति में कानून सभी लोगों के लिए समान है।

भारत में न्यायपालिका प्रणाली या अदालतें एक स्वायत्त निकाय हैं और किसी भी सरकारी संगठन या पार्टी के नियंत्रण में नहीं हैं। भारत के न्यायपालिका निकाय द्वारा पारित राय, कानून या कार्य किसी भी विधायिका प्राधिकरण और उनके स्वतंत्र निर्णय से प्रभावित नहीं होते हैं।

लोकतन्त्र की पूर्णतः सही और सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। क्रैन्स्टन का लोकतंत्र के बारे में कहना है कि लोकतन्त्र के सम्बन्ध में अलग-अलग धारणाएँ है। लिण्सेट के अनुसार, “लोकतन्त्र एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली है जो पदाधिकारियों को बदल देने के नियमित सांविधानिक अवसर प्रदान करती है और एक ऐसे रचनातंत्र का प्रावधान करती है जिसके तहत जनसंख्या का एक विशाल हिस्सा राजनीतिक प्रभार प्राप्त करने के इच्छुक प्रतियोगियों में से मनोनुकूल चयन कर महत्त्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावित करती है।”

मैक्फर्सन के अनुसार ‘एक मात्र ऐसा रचनातन्त्र माना है जिसमें सरकारों को चयनित और प्राधिकृत किया जाता है अथवा किसी अन्य रूप में कानून बनाये और निर्णय लिए जाते हैं।‘

शूप्टर के अनुसार, ‘लोकतान्त्रिक विधि राजनीतिक निर्णय लेने हेतु ऐसी संस्थागत व्यवस्था है जो जनता की सामान्य इच्छा को क्रियान्वित करने हेतु तत्पर लोगों को चयनित कर सामान्य हित को साधने का कार्य करती है। लोकतन्त्र की अवधारणा के सम्बन्ध में प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:

  • लोकतन्त्र का पुरातन उदारवादी सिद्धान्त
  • लोकतन्त्र का अभिजनवादी सिद्धान्त
  • लोकतन्त्र का बहुलवादी सिद्धान्त
  • प्रतिभागी लोकतन्त्र का सिद्धान्त
  • लोकतन्त्र का मार्क्सवादी सिद्धान्त अथवा जनता का लोकतन्त्र

प्रजातंत्र के पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं:

  • एक लोकतांत्रिक सरकार को सबसे बेहतर सरकार माना जाता है, जो देश को विकास की ओर ले जा सकती है।
  • प्रजातंत्र मतभेदों और संघर्षों से निपटने का तरीका प्रदान करता है।
  • लोकतांत्रिक निर्णय में हमेशा चर्चाएं और बैठकें होती हैं। अतः लोकतंत्र, निर्णय लेने की गुणवत्ता पर भी सुधार करता है।
  • प्रजातंत्र राजनीतिक समानता के सिद्धांत पर आधारित है, इसलिए यह नागरिकों की गरिमा को बढ़ाता है।
  • लोकतंत्र अपनी गलतियों को सुधारने की अनुमति देता है।

Loktantra kya hai के बारे में जानने के बाद प्रजातंत्र के विपक्ष में तर्क इस प्रकार हैं:

  • लोकतंत्र में नेता बदलते रहते हैं, जिससे अस्थिरता अक्सर होने लगती है।
  • जनता के द्वारा चुने गए नेताओं को लोगों के सर्वोत्तम हितों का पता नहीं होता है, जिसके परिणाम स्वरूप गलत निर्णय लिए जा सकते हैं।
  • लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और सत्ता पाने की भावना बढ़ती है, जिसमें नैतिकता की कोई गुंजाइश नहीं होती है।
  • लोकतंत्र चुनावी प्रतिस्पर्धा पर आधारित है, इसलिए यह भ्रष्टाचार की ओर ले जाता है।
  • लोकतंत्र में बहुत सारे लोगों से परामर्श लेना पड़ता है, जिससे उचित निर्णय लेने में देरी होती है।

लोकतंत्र के प्रकार (संक्षिप्त में)

Loktantra kya hai जानने के साथ आपको प्रजातंत्र के मुख्य रूप से दो प्रकार माने जाते हैं, जो कि इस प्रकार है-

वर्तमान में स्विट्जरलैंड में प्रत्यक्ष लोकतंत्र चलता है। इस प्रकार का लोकतंत्र प्राचीन यूनान के नगर राज्यों में पाया जाता था। प्रत्यक्ष लोकतंत्र से तात्पर्य है कि जिसमें देश के सभी नागरिक प्रत्यक्ष रूप से राज्य कार्य में भाग लेते हैं। इस प्रकार उनके विचार विमर्श से ही कोई फैसला लिया जाता है ‌। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने ऐस लोकतंत्र को ही आदर्श व्यवस्था माना है।

कई देशों में आज का शासन प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है जिसमें जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा निर्णय लिया जाता है इसमें देश की जनता सिर्फ अपना प्रतिनिधि चुनने में अपना योगदान देती है वह किसी शासन व्यवस्था और कानून निर्धारण  लेने में भागीदारी नहीं निभाती है। इसे ही प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र कहते हैं।

अन्य लोकतंत्र के प्रकार

  • सत्तावादी लोकतंत्र
  • राष्ट्रपति लोकतंत्र
  • संसदीय लोकतंत्र (संसदीय धर्मनिरपेक्षता)
  • भागीदारी प्रजातंत्र
  • सामाजिक लोकतंत्र
  • इस्लामी लोकतंत्र

Loktantra kya hai जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि लोकतंत्र के दो रूप होते हैं, जैसे- 

  • प्रत्यक्ष लोकतंत्र
  • अप्रत्यक्ष लोकतंत्र

प्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता खुद कानून बनाती है और उसे लागू करती है ,प्राचीन यूनान में अपनाया गया था। अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और वह प्रतिनिधि कानून बनाता है ज्यादातर देशों में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को अपनाया गया है। प्रत्यक्ष लोकतंत्र को आसानी से नहीं अपनाया जा सकता, वह केवल वही अपनाया जा सकता है जहां की  जनसंख्या कम होती है।प्राचीन समय में जनसंख्या 500 से 600 लोगों की हुआ करती थी, इसलिए आपस में ही मिलकर कानून बनाते थे और उसे लागू करते थे। परंतु आज के समय में कोई भी छोटे से छोटा देश या राज्य ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकता,अभी के समय में राज्य या देश की संख्या लाखों और करोड़ों में है। इसलिए अभी के समय में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को ज्यादा अपनाया गया है। कोई भी जगह पर लोग एक साथ इकट्ठा होकर अपना कानून नहीं बना सकते या उस पर निर्णय नहीं ले सकता। अप्रत्यक्ष लोकतंत्र केवल उसे कहा जाता है जहां देश के राज्य की जनता अपने मनपसंद प्रतिनिधियों को चुनती है और वह प्रतिनिधि देश के लिए  कानून बनाते हैं और उसे लागू करवाते हैं।

प्रजातंत्र में प्रतिनिधि जनता के द्वारा अपने हित के अनुसार चुना जाता है। जनता जब चाहे तख्ता पलट कर सकती है। किसी भी योजना के सफल या असफल होने पर सरकार जनता के प्रति जवाबदेही होती है। लोकतांत्रिक सरकार में कोई व्यक्ति स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं ले सकता है।

Loktantra kya hai जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि लोकतंत्र के मुख्य सिद्धांत क्या-क्या हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • लोकतंत्र का पुरातन उदारवादी सिद्धांत- लोकतंत्र की उदारवादी परम्परा में स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, धर्मनिरपेक्षता और न्याय जैसी अवधारणाओं का प्रमुख स्थान रहा है
  • लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत – बहुलवाद सत्ता को समाज में एक छोटे से समूह तक सीमित करने के बदले उसे प्रसारित और विकेन्द्रीकृत कर देता है।
  • लोकतंत्र का सहभागिता सिद्धांत – इस सिद्धांत ने आम जनता की राजनीतिक कार्यों में भागीदारी को समर्थन किया जैसे – मतदान करना, राजनीतिक दलों की सदस्यता, चुनावों मे अभियान कार्य। 
  • लोकतंत्र का मार्क्सवादी सिद्धांत – मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार भूमि, कल कारखाने इत्यादि पर जनता का स्वामित्व होता है। राज्य सारी प्रोडक्टिव कैपिटल एसेट्स को अपने नियंत्रण में ले लेता है और उत्पादन-क्षमता में तेजी से वृद्धि होती है। इसमें प्रत्येक नागरिक के लिए आगे बढ़ने के समान अवसर होते हैं।

Loktantra kya hai जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि लोकतंत्र के गुण क्या-क्या हैं-

प्रजातंत्र को जॉन स्टूअर्ट मिल का शासन बताया है। इन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट में लोकतंत्र के समर्थन को प्रस्तुत किया कि किसी भी सरकार में  गुण दोषों का मूल्यांकन करने के लिए दो मापदंडों की आवश्यकता होती है । उसकी पहले कसोटी यह है कि क्या सरकार का शासन उत्तम है अथवा नहीं, उसकी दूसरी कसौटी है कि उसके शासन का प्रजा के चरित्र निर्माण पर अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ता है।

  • उच्च आदर्शों पर आधारित
  • जनकल्याण पर आधारित
  • सार्वजनिक शिक्षण
  • क्रांति से सुरक्षा
  • परिवर्तनशील शासन व्यवस्था
  • देश प्रेम की भावना का विकास
  • चंदा में अपना विश्वास एवं उत्तरदायित्व की भावना का विकास

Loktantra kya hai जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि लोकतंत्र के दोष क्या-क्या हैं-

  • लोकतंत्र अयोग्य लोगों का शासन है
  • बहुमत  द्वारा निर्णय युक्तिसंगत नहीं
  • प्रजातंत्र गुणों पर नहीं बल्कि संख्या पर बल देता है
  • पेशेवर राजनीतिक लोग का बहुमूल्य
  • खर्चीला शासन
  • संकट काल के लिए अनुपयुक्त
  • उग्र दलबंदी

Loktantra kya hai को और अच्छे से जानने के लिए नीचे इसके फायदे और नुकसान दिए गए हैं-

चूंकि देश के लोग लोकतंत्र में सरकार का चुनाव करते हैं, इस प्रकार यह अंततः लोगों को उनके कार्यों के लिए जवाबदेह होता है।चूंकि लोकतंत्र में सत्ता की कई परतें होती हैं, इसलिए निर्णय लेने की प्रक्रिया अन्य प्रकार की सरकार की तुलना में थोड़ी धीमी होती है।
एक लोकतांत्रिक सरकार अपने लोगों को सरकार से ही सवाल करने के लिए और अधिक स्वतंत्रता देगी। उदाहरण के लिए, चीन के लोग सरकार पर सवाल नहीं उठा सकते। हालांकि, भारत में लोकतंत्र लोगों को कुछ भी गलत होने पर सरकार से सवाल करने की अनुमति देगा।एक लोकतांत्रिक सरकार में भ्रष्टाचार की संभावना होती है क्योंकि लोग चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक प्रभाव और शक्ति का उपयोग कर सकते हैं। भारत में लोकतंत्र एक उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है जहां लोग चुनाव के समय लोगों को पैसे देकर चुनाव परिणामों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं।
चूंकि एक विपक्षी दल की अवधारणा है, इसलिए समय के साथ निर्णय लेने की गुणवत्ता में सुधार होगा।भारत जैसे बड़े देश में हर पांच साल में राजनीतिक दलों के बदलाव के कारण विकास परियोजनाएं अस्थिर हो सकती हैं।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जहां राष्ट्रपति राज्य के प्रमुख के रूप में कार्य करता है। प्रधान मंत्री देश की केंद्र सरकार के प्रमुख के रूप में कार्य करता है। केंद्र सरकार के अलावा, देश के बेहतर शासन में सहायता के लिए प्रत्येक राज्य के लिए राज्य सरकारें हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों संविधान के ढांचे के भीतर काम करती हैं। भारत में लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों में से एक राजनीतिक समानता पर आधारित है, और इसलिए देश में कोई भी व्यक्ति पार्टी चला सकता है और चुनाव लड़ सकता है।

भारत में लोकतंत्र में एक द्विसदनीय विधायिका है, जो दो सदनों अर्थात् उच्च सदन या राज्य सभा और निचले सदन या लोकसभा का निर्माण करती है। लोकसभा के सदस्य केंद्र सरकार के चुनावों के माध्यम से चुने जाते हैं जिसमें पूरे देश के लोगों ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए सदस्यों का चुनाव करने के लिए अपना वोट डाला। अभी तक, लोकसभा में कुल 543 सीटें हैं जो देश के 543 निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं। 543 सीटों में से बहुमत प्राप्त पार्टी की सरकार बनाती है। दूसरे बहुमत वाली पार्टी विपक्षी पार्टी बनाती है। राज्य सभा के 245 सदस्यों में से 233 सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से राज्य विधान सभा के प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हैं। भारत के राष्ट्रपति शेष 12 सदस्यों को कला, साहित्य, खेल आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान के लिए चुनते हैं।

भारत में लोकतंत्र की प्रणाली में एक बहुदलीय प्रणाली है। भारत में सभी दलों को एक राष्ट्रीय पार्टी या एक राज्य पार्टी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है यदि वे विशिष्ट योग्यताएं स्पष्ट करते हैं। साथ ही, किसी पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए, उसे भारत के चुनाव आयोग के साथ पंजीकृत होना चाहिए। यह एक स्वतंत्र निकाय है जिसे सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।

Loktantra kya hai जानने के साथ-साथ इसकी आवश्यक शर्तों के बारे में जानिए-

  • प्रजातंत्र की सफलता में सबसे महत्वपूर्ण बाधा अशिक्षा की है ,इसका यह अर्थ है कि प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि नागरिक को शिक्षित होना चाहिए  जागृत करना और राजनीतिक जीवन में रुचि रखने वाला हो।
  • प्रजातंत्र का आर्थिक रूप से यह भी कार्य होता है कि देश में शांति और सुव्यवस्था का वातावरण बनाए रखें।
  • लोकतंत्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना करना भी बहुत ही आवश्यक है ।जनता की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी करनी चाहिए ताकि वह भी बिना किसी दबाव के शासन के कार्यों में भाग ले सकें।
  • निर्वाचन समय बंद एवं निष्पक्ष होना यह लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है।
  • सामाजिक स्तर पर विशेष अधिकारों की संपत्ति होना बहुत ही आवश्यक है लोकतंत्र की सफलता के लिए।
  • प्रजातंत्र की रक्षा एवं सफलता संरक्षण हेतु के निष्पक्ष न्यायपालिका होनी बहुत आवश्यक है लोकतंत्र की सफलता के लिए अहम भूमिका निभाता है।
  • जनमत निर्माण के साधन जैसे समाचार पत्र ,पत्रिकाएं सभा संगठन ऐसी कई सारे प्रकार पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार ना हो, प्रकाश स्वतंत्र और ईमानदार प्रेम के माध्यम से जनता और शासन के बीच स्वस्थ संबंध कायम बनाए रखना लोकतंत्र की सफलता के लिए यह भी बहुत ही आवश्यक है।
  • स्थानीय स्वशासन का विकास और प्राथमिक पाठशाला होनी अभी बहुत ही आवश्यक है।
  • प्रजातंत्र के कट्टर आलोचक लेकर तथा हेंडरी मैंने बहुत के शासन को सीमा के भीतर रखने के लिए लिखित संविधान का सुझाव भी दिया था जो लोकतंत्र में अहम भूमिका निभाते हैं।
  • प्रभावशाली विरोधी कादल और शक्तिशाली अभाव में लोकतंत्र सरकार निर्गुण और लापरवाह हो जाती है साथ ही सत्ता का दुरुपयोग करने लगती है यह भी लोकतंत्र का सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है।

लोकतंत्रात्मक शासन अनेक प्रकार की आलोचना और दोषों के होते हुए लोकतंत्र का अपना एक अलग ही महत्व है।

  • लोगों की जरूरत के अनुरूप आचरण करने के मामले में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली किसी अन्य शासन प्रणाली से बहुत ही बेहतर है।
  • लोकतांत्रिक शासन पद्धति बाकी सभी पद्धति से बेहतर है क्योंकि यह आशंका अधिक जवाबदेही वाला स्वरूप होता है।
  • बेहतर निर्णय देने की संभावना बढ़ाने के लिए लोकतंत्र अलग ही भूमिका निभाता है।
  • लोकतंत्र मतभेदों और टकराव को संभलने का तरीका अलग ही तरीके से उपलब्ध कराता है।
  • लोकतंत्र जनता एवं नागरिकों का सम्मान बढ़ाता है।
  • लोकतांत्रिक व्यवस्था दूसरों से बेहतर है क्योंकि इसमें हमें अपनी गलती ठीक करने का अवसर भी दिया जाता है।

Loktantra kya hai जानने के साथ-साथ लोकतंत्र और तानाशाही के बीच अंतर क्या हैं, यह जान लेते हैं-

जैसा कि आप पहले से ही जानते होंगे, सरकारों के ये दो रूप प्रकृति में काफी विपरीत हैं। यहां हम आपकी समझ के लिए लोकतंत्र और तानाशाही के बीच के अंतर को बहुत संक्षेप में समझाएंगे।

  • लोकतंत्र और तानाशाही के बीच महत्वपूर्ण अंतर सरकार में बदलाव है। तानाशाही में बिना किसी चुनाव के एक पार्टी का शासन होता है, जबकि लोकतंत्र में नियमित और लगातार चुनाव होते हैं जिसमें सभी नागरिकों के वोट शामिल होते हैं।
  • एक लोकतंत्र में, लोगों की आवाज शासन के मामलों में प्राथमिक प्राथमिकता लेती है, जबकि एक तानाशाही में लोगों को प्रभावी ढंग से खामोश कर दिया जाता है और सरकार के लिए उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं होती है। यह लोकतंत्र और तानाशाही के बीच एक बड़ा अंतर है।
  • लोकतंत्र और तानाशाही के बीच एक और अंतर सरकार की जवाबदेही है जो लोकतंत्र की प्राथमिक विशेषता है। एक तानाशाही में, सरकार नीतियों और विनियमों को लागू करने के लिए अनियंत्रित शक्ति रखते हुए, अपनी इच्छा और इच्छा के अनुसार व्यवहार करती है।
परिभाषालोकतंत्रमें सबसे ज्यादा वोट और जनसमर्थन पाने वाला व्यक्ति नेता बनता है।
व्यक्तिमतदाताओं का सम्मान करने के लिए जिम्मेदार है औरइसके कल्याण की तलाश करता है।
तानाशाही में केवल एक ही शासक होता हैजिसने अवैध रूप से सत्ता हथिया ली है औरपूरे देश पर लोहे के हाथ से शासन करता है।
उनका शासन शासनको पवित्र करने के प्रचार के साथ है ।
राजनीतिक व्यवस्था का प्रकारइस राज्य में विविध समुदायों और विचारों काप्रतिनिधित्व करने वाली बहुदलीय या द्विदलीय व्यवस्था है ।
राजनीतिक शक्ति केवलएक कड़ाई से निगरानी मुक्तचुनाव प्रक्रिया के माध्यम से दी जाती है। 
सरकार के एक तानाशाही रूप में,राजनीतिक दलों को ज्यादातरकिसी भी प्रकार की गतिविधियों को करने से प्रतिबंधित किया जाता है। राजनीतिक सभाओं को अवैध बना दिया जाता है।
स्वतंत्रता और अधिकारलोकतंत्र के तहत पत्रकारिता औरमीडिया को स्वतंत्र रूप से फलने-फूलनेऔर परिणामों की चिंता किए बिना सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना करने की अनुमति है । एक तानाशाही में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वतंत्र अभिव्यक्ति अभिशाप हैं।किसी को भीसरकार के खिलाफ एक शब्द भी कहने की अनुमति नहीं है और नागरिकअधिकार निलंबित हैं। 
शासनलोकतंत्र लोगों को अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टीस्थापित करने या उसमें शामिल होने का स्वतंत्र विकल्प देता है।चूंकि एक दलीय प्रणाली है, इसलिएराजनीतिक विपक्ष को बेरहमी सेहतोत्साहित किया जाता है।
आजादीसरकार इस राज्य में लोगों के जीवन को निर्देशित नहीं कर सकती है । यहां, विषयकुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं याफिर भी, वे अपने संसाधनों को खर्च करना चाहते हैं।यहां लोगों के जीवन का हर क्षेत्र,उनका सामाजिक जीवनसरकारी नियमों और आदेशों से प्रभावित होता है ।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो आप इन दोनों राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच के अंतरों को जानकर आश्चर्यचकित हो सकते हैं, वह यह है कि लोकतंत्र को तानाशाही से बेहतर क्यों माना जाता है। यह केवल इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र लोगों को अधिक मौलिक और मानव अधिकार देता है और जनता पर ध्यान केंद्रित करता है, न कि तानाशाही जो पूरी तरह से वही करती है जो उसका तानाशाह करना चाहता है। आइए प्रमुख कारणों का पता लगाएं कि लोकतंत्र को तानाशाही से बेहतर क्यों माना जाता है:

  • लोकतंत्र देश और उसके नागरिकों में समानता की सुविधा प्रदान करता है। सभी को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है। हालाँकि, तानाशाही किसी देश के तानाशाह के नियमों और इच्छाओं के आदेशों का आँख बंद करके पालन करती है।
  • लोकतंत्र में संघर्षों को हल करने के लिए उचित तरीके और तरीके शामिल हैं, चाहे देश के भीतर या देश के बाहर, जबकि तानाशाही में अपने नागरिकों के बीच संघर्ष समाधान के लिए ऐसी कोई विशेषता नहीं है।
  • राजनीतिक दृष्टि से, लोकतंत्र को वैध सरकार का एक रूप माना जाता है जहां कुछ व्यक्ति लोगों के प्रतिनिधि होते हैं और नागरिकों को भी सामरी के रूप में कार्य करने के लिए अपेक्षित अधिकार और कर्तव्य मिलते हैं। दूसरी ओर, तानाशाही के पास प्रतिनिधि चुनने की कोई प्रक्रिया नहीं होती है, इस प्रकार तानाशाह के साथ पड़ने और अपने नागरिकों को बिना किसी प्रतिनिधि के छोड़ने की संभावना अधिक होती है।
  • लोकतंत्र गुणवत्तापूर्ण निर्णय लेने, नए कानूनों को लागू करने, संघर्ष के समाधान, अपने नागरिकों के बीच संकट को हल करने के साथ-साथ अपने जनता के सामने आने वाले मुद्दों और समस्याओं के समय पर समाधान के लिए नियमों और विनियमों का एक सेट स्थापित करता है। दूसरी ओर, तानाशाही केवल बिना किसी आपत्ति के शासक का आँख बंद करके पालन करने, नियमों पर सवाल उठाने की गुंजाइश या यहाँ तक कि जनता के सामने आने वाले मुद्दों को समझने में विश्वास करती है।
  • लोकतंत्र एक जवाबदेह राजनीतिक व्यवस्था भी है क्योंकि सरकार को अपने फैसलों के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है और प्रदान किए गए अधिकारों के साथ नागरिक सवाल कर सकते हैं और पूछताछ कर सकते हैं कि निर्णय लेने के मामले में क्या हो रहा है। तानाशाही उन लोगों के एक निश्चित समूह तक ही सीमित रहती है जिन पर वास्तव में भरोसा नहीं किया जा सकता है और उन्हें जवाबदेह माना जाता है क्योंकि उनके अपने निजी हितों को जनता के लिए फायदेमंद माना जाता है।

पाठ- 3 लोकतंत्र और विविधता लोकतांत्रिक राजनीती

  • सवाल: Democracy’ शब्द ग्रीक भाषा के किन शब्दों के संयोग से बना है और उसका प्रचलित व स्वीकृत अर्थ क्या है? उत्तर: अंग्रेजी शब्द Democracy का हिन्दी अनुवाद है-लोकतंत्र, जनतंत्र अथवा प्रजातंत्र। अंग्रेजी शब्द Democracy ग्रीक भाषा के दो शब्दों ‘डेमोस’ तथा ‘क्रेटिया’ के संयोग से बना है। यद्यपि ‘डेमोस’ का मूल अर्थ है भीड़ किंतु आधुनिक काल में इसका अर्थ जनता से लिया जाने लगा है और ‘क्रेटिया’ का अर्थ है ‘शक्ति’। इस प्रकार शब्दार्थ की दृष्टि से ‘डेमोक्रेसी’ का अर्थ है ‘जनता की शक्ति’। इस डेमोक्रेसी का अर्थ है जनता की शक्ति पर आधारित शासनतंत्र।

2. सवाल: लोकतंत्र के एक रूप ‘सामाजिक लोकतंत्र’ का क्या अर्थ है?

उत्तर: सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है कि समाज में नस्ल, रंग (वर्ण), जाति, धर्म, भाषा, लिंग, धन, जन्म आदि के आधार पर व्यक्तियों के बीच भेद नहीं किया जाना चाहिए और सभी व्यक्तियों को व्यक्ति के रूप में समान समझा जाना चाहिए। 

3. सवाल: किस तरह के सामाजिक अंतर गहरे सामाजिक विभाजन और तनावों की स्थिति पैदा करते हैं, किस तरह के सामाजिक अंतर सामान्य तौर पर टकराव की स्थिति तक नहीं जाते। 

उत्तर: एक ही तरह के सामाजिक अंतर गहरे सामाजिक विभाजन और तनावों की स्थिति पैदा करते हैं, विभिन्न तरह के सामाजिक अंतर सामान्य तौर पर टकराव की स्थिति तक नहीं जाते। 

4. सवाल: लोकतंत्र को शासन का एक रूप ‘सामाजिक संगठन का एक सिद्धांत तथा जीवन की एक पद्धति माना जाता हैं क्यों?

उत्तर: लोकतंत्र का समाजवादी सिद्धांत लोकतंत्र के उदारवादी सिद्धांत तथा मार्क्सवादी सिद्धांत के समन्वय से बना सिद्धांत है। यह उदारवादी लोकतंत्र में निहित व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रता के मार्क्सवादी लोकतंत्र में निहित आर्थिक समानता के आदर्शों को एक साथ प्राप्त करना चाहता है।

5. सवाल: प्रत्यक्ष लोकतंत्र किसे कहते हैं? इसके उदाहरण दें।।

उत्तर: प्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता सरकार के कई निर्णयों में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेती है तथा कानून के निर्माण के समय अपना निर्णय (जनमत) देती है। प्रत्यक्ष लोकतंत्र का उदाहरण स्वीटजरलैंड है।

पाठ- 3 लोकतंत्र क्या, लोकतंत्र क्यों

1 सवाल: यहाँ चार देशों के बारे में कुछ सूचनाएँ हैं। इन सूचनाओं के आधार पर आप इन देशों का वर्गीकरण किस तरह करेंगे? इनके सामने ‘लोकतांत्रिक’, ‘अलोकतांत्रिक’ और पक्का नहीं लिखें।

(क) देश क जो लोग देश के अधिकारिक धर्म को नहीं मानते उन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं है। 

(ख) देश खः एक ही पार्टी बीते बीस वर्षों से चुनाव जीतती आ रही है। 

(ग) देश गः पिछले तीन चुनावों में शासक दल को पराजय का मुंह देखना पड़ा। 

(घ) देश घः यहाँ स्वतंत्र चुनाव आयोग नहीं है।

(क) अलोकतांत्रिक

(ख) पक्का नहीं

(ग) लोकतांत्रिक

(घ) अलोकतांत्रिक

2. सवाल: यहाँ चार अन्य देशों के बारे में कुछ सूचनाएँ दी गई हैं, इन सूचनाओं के आधार पर आप इन देशों का वर्गीकरण किस तरह करेंगे? इनके आगे ‘लोकतांत्रिक’, ‘अलोकतांत्रिक’ और ‘पक्का नहीं लिखें।

(क) देश च: संसद सेना प्रमुख की मंजूरी के बिना सेना के बारे में कोई कानून नहीं बना सकती। 

(ख) देश छः संसद न्यायपालिका के अधिकारों में कटौती का कानून नहीं बना सकती। 

(ग) देश ज: देश के नेता बिना पड़ोसी देश की अनुमति के किसी और देश से संधि नहीं कर सकते। 

(घ) देश झः देश के आर्थिक फैसले केंद्रीय बैंक के अधिकारी करते हैं जिसे मंत्री नहीं बदल सकते।

उत्तर: (क) अलोकतांत्रिक (ख) लोकतांत्रिक (ग) अलोकतांत्रिक (घ) अलोकतांत्रिक

3. सवाल: लोकतंत्र में अकाल और भुखमरी की संभावना कम होती यह तर्क देने का इनमें से कौन-सा कारण सही नहीं है?

(क) विपक्षी दल भूख और भुखमरी की ओर सरकार का ध्यान दिला सकते हैं।

(ख) स्वतंत्र अखार देश के विभिन्न हिस्सों में अकाल की स्थिति के बारे में खबरें दे सकते हैं। (ग) सरकार को अगले चुनाव में अपनी पराजय का डर होता है।

(ग ) लोगों को कोई भी तर्क मानने और उस पर आचरण करने की स्वतंत्रता है।

उत्तर: विकल्प ‘ग’ तर्क के लिए वैध कारण नहीं है कि लोकतांत्रिक देश में अकाल की कम संभावना है। इसका कारण यह है कि किसी भी धर्म का आचरण करने से अकाल को रोकने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है।

घाना, म्यांमार और वेटिकन सिटी किसी न किसी रूप में लोकतंत्र की परिधि से बाहर के देश हैं। इसके अलावा सऊदी अरब, जार्डन, मोरक्को, भूटान, ब्रूनेई, कुवैत, यूएई, बहरीन, ओमान, कतर, स्वाजीलैंड आदि देशों में राजतंत्र है।

सामान्यत: लोकतंत्र-शासन-व्यवस्था दो प्रकार की मानी जानी है : (1) विशुद्ध या प्रत्यक्ष लोकतंत्र तथा (2) प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र

लोकतंत्र का अर्थ है जनता द्वारा , जनता के हित मे , जनता पर शासन। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता , मतदान का अधिकार , स्वतंत्र मीडिया, निष्पक्ष न्यायलय लोकतंत्र के प्रमुख सिद्धांत है।

ग्रीस, दुनिया का पहला लोकतांत्रिक देश है।

व्यावहारिक सामाजिक समानता का अभावः – जिन देशो में लोकतंत्र की स्थापना हुई, उनमें अधिकांश रूप से यह देखने को मिलता है कि व्यावहारिक रूप से सामाजिक समानता कायम नहीं रहती है। ऊंच – नीच, गरीबी – अमीरी, वर्ग – संघर्ष, तरीके और आर्थिक असमानताओं के कारण सामाजिक समानता कभी स्थापित नहीं होती है।

लोकतंत्र में लोक का अर्थ जनता और तंत्र का अर्थ व्यवस्था होता है. अत: लोकतंत्र का अर्थ हुआ जनता का राज्य. यह एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता समाज-जीवन के मूल सिद्धांत होते हैं. अंग्रेजी में लोकतंत्र शब्द को डेमोक्रेसी (Democracy) कहते है जिसकी उत्पत्ति ग्रीक मूल शब्द ‘डेमोस’ से हुई है

लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधि विधायक और सांसद होते हैं जिन्हें हम वोट देकर अपना जनप्रतिनिधि बनाते हैं।

दुनिया के 56 देशों में है लोकतांत्रिक प्रणाली ञ्च भारत, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया समेत केवल 56 देशों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन किया जाता है।

सउदी अरब मध्यपूर्व में स्थित एक सुन्नी मुस्लिम देश है। यह एक इस्लामी राजतंत्र है जिसकी स्थापना १७५० के आसपास सउद द्वारा की गई थी। … यह विश्व के अग्रणी तेल निर्यातक देशों में गिना जाता है।

दुनिया में भारत को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश माना जाता है। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था। इसे विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान मानते हैं। भारत को इसलिए दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है, क्योंकि यहां 29 भाषाएं और करीब 1650 बोलियां बोली जाती हैं।

लोकतंत्र के मुख्य रूप से दो प्रकार माने जाते हैं- (1) विशुद्ध या प्रत्यक्ष लोकतंत्र (2) प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र

सरकार के दो रूप हैं- (1) लोकतांत्रिक (2) गैर लोकतांत्रिक।

डॉ. भीमराव अंबेडकर

प्रत्यक्ष लोकतंत्र से तात्पर्य है कि जिसमें देश के सभी नागरिक प्रत्यक्ष रूप से राज्य कार्य में भाग लेते हैं। इस प्रकार उनके विचार विमर्श से ही कोई फैसला लिया जाता है ‌। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने ऐस लोकतंत्र को ही आदर्श व्यवस्था माना है।

अरस्तू ने प्रजातंत्र एक विकृत शासन प्रणाली बताया था ,जिसमें बहू संख्या निर्धन वर्ग अपने वर्ग के हित के लिए शासन पर आता है और भीडतंत्र का रूप धारण कर लेता है और साथ ही अरस्तू के लोकतंत्र को पालिटी polity के नाम से जाना जाता है।

यूनानी दार्शनिक वलीआन के अनुसार ने प्रजातंत्र की यह परिभाषा दी है कि, “लोकतंत्र वह होगा जो जनता का, जनता के द्वारा हो, जनता के लिए हो।”

आज के समय में भी कई देश ऐसे हैं जो शासन के तानाशाही रूप के दौर से गुजर रहे हैं। वे देश हैं ईरान, चीन, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला, सीरिया, मिस्र, कंबोडिया, कजाकिस्तान।

विभिन्न देशों पर शासन करने वाले कुछ क्रूर तानाशाह हैं, अयातुल्ला खामेनेई, बशर अल असद, किम जोंग उन, नूरसुल्तान नज़रबायेव, अब्दुल फतेह अल सीसी, शी जिनपिंग और हुन सेन।

हर दृष्टि से प्रजातंत्र जीने की आदर्श स्थिति है। यह समानता को बढ़ावा देता है, लोगों को अपनी सरकार चुनने और स्वतंत्र रूप से अपनी राय रखने का अधिकार देता है।

एक तानाशाही की मुख्य विशेषताओं में नागरिक अधिकारों का निलंबन, राजनीतिक विरोध का गला घोंटना, न्यायपालिका को कमजोर करना, आपातकाल की निरंतर स्थिति और निरंतर प्रसार दुष्प्रचार और प्रचार शामिल हैं।

आमतौर पर, एक राजशाही को राजा या रानी के शासन की विशेषता होती है, जो अपने लोगों पर पूर्ण नियंत्रण रखता है। राजशाही का वह रूप तानाशाही का चेहरा है। लेकिन यूनाइटेड किंगडम जैसा देश, जो एक संवैधानिक प्रकार की राजशाही है, एक सम्राट के नियंत्रण को काफी हद तक कम कर देता है।

भारत में लोकतांत्रिक शासन प्रणली है।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा दी थी।

आशा करते हैं कि आपको इस ब्लॉग के माध्यम से Loktantra kya hai के बारे में सम्पूर्ण जानकारी मिल गई होगी। इस प्रकार के अन्य ब्लोग्स पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ जुड़े रहें।

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रश्मि पटेल विविध एजुकेशनल बैकग्राउंड रखने वाली एक पैशनेट राइटर और एडिटर हैं। उनके पास Diploma in Computer Science और BA in Public Administration and Sociology की डिग्री है, जिसका ज्ञान उन्हें UPSC व अन्य ब्लॉग लिखने और एडिट करने में मदद करता है। वर्तमान में, वह हिंदी साहित्य में अपनी दूसरी बैचलर की डिग्री हासिल कर रही हैं, जो भाषा और इसकी समृद्ध साहित्यिक परंपरा के प्रति उनके प्रेम से प्रेरित है। लीवरेज एडु में एडिटर के रूप में 2 साल से ज़्यादा अनुभव के साथ, रश्मि ने छात्रों को मूल्यवान मार्गदर्शन प्रदान करने में अपनी स्किल्स को निखारा है। उन्होंने छात्रों के प्रश्नों को संबोधित करते हुए 1000 से अधिक ब्लॉग लिखे हैं और 2000 से अधिक ब्लॉग को एडिट किया है। रश्मि ने कक्षा 1 से ले कर PhD विद्यार्थियों तक के लिए ब्लॉग लिखे हैं जिन में उन्होंने कोर्स चयन से ले कर एग्जाम प्रिपरेशन, कॉलेज सिलेक्शन, छात्र जीवन से जुड़े मुद्दे, एजुकेशन लोन्स और अन्य कई मुद्दों पर बात की है। Leverage Edu पर उनके ब्लॉग 50 लाख से भी ज़्यादा बार पढ़े जा चुके हैं। रश्मि को नए SEO टूल की खोज व उनका उपयोग करने और लेटेस्ट ट्रेंड्स के साथ अपडेट रहने में गहरी रुचि है। लेखन और संगठन के अलावा, रश्मि पटेल की प्राथमिक रुचि किताबें पढ़ना, कविता लिखना, शब्दों की सुंदरता की सराहना करना है।

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कार्यालयी हिंदी/कार्यालयी हिंदी

कार्यालयी हिंदी

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और 'भाषा' समाज के सदस्यों के बीच संपर्क एवं संवाद का माध्यम बनती है। बिना संपर्क और संवाद के कोई भी समाज जीवंत नहीं माना जा सकता अर्थात् बिना भाषा के किसी भी समाज का अस्तित्व संभव ही नहीं है। जिस प्रकार मनुष्य को खाने के लिए अन्न, पीने के लिए पानी, पहनने के लिए कपड़े की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आपस में सम्पर्क और संबंध बनाए रखने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। भाषा से ही मनुष्य अपना जीवन सुगम बनाता है।

वर्षों की यात्रा के पश्चात् भाषा में निरन्तर परिवर्तन होते रहे हैं और भाषा का महत्त्व भी लगातार बढ़ता गया है। समाज के बीच संवाद-सम्प्रेषण और संबंध स्थापन भाषा का प्राथमिक कार्य है, किन्तु भाषा समाज की एक सीधी और सरल रेखा में चलने वाली इकाई नहीं है । समाज तथा इसके सदस्यों के अस्तित्व और चरित्र के अनेक आयाम होते हैं और इन सभी आयामों के संदर्भ में भाषा की विशिष्ट भूमिका होती है।

भारत में विभिन्न भाषाओं में संवाद होता है। इन सभी भाषाओं की अपनी एक यात्रा रही है लेकिन भारतीय समाज की सम्पर्क भाषा 'हिन्दी' ने जहाँ वैदिक संस्कृत से यात्रा करते हुए आधुनिक हिन्दी का स्वरूप ग्रहण किया है वह एक सामाजिक क्रिया का आधार है। समाज निरन्तर अपने विकास के साथ-साथ भाषाओं का भी विकास करता है। समाज में होने वाले परिवर्तन की तरह ही उसकी अपनी भाषा में भी कभी स्थैर्य नहीं रहा। इसीलिए निरन्तर परिवर्तनों की धार पर चलकर हिन्दी अपने अनेक रूपों के साथ वर्तमान में समाज के सम्मुख उपस्थित है। हिन्दी की प्रयोजनीयता के आधार पर उसके विभिन्न रूप इस प्रकार हैं-

1. साहित्यिक हिन्दी

2. कार्यालयी हिन्दी

3. व्यावसायिक हिन्दी

4. विधिपरक हिन्दी

5. जनसंचार के माध्यमों की हिन्दी

6. वैज्ञानिक और तकनीकी हिन्दी

7. सामाजिक हिन्दी

वैसे तो कार्यालयी हिन्दी अपने आप में एक व्यापक अर्थ की अभिव्यक्ति रखता है। चूँकि साहित्यिक क्षेत्र हो अथवा व्यावसायिक, पत्रकारिता का क्षेत्र हो ज विज्ञान और तकनीकी का क्षेत्... सभी क्षेत्रों से सम्बद्ध कार्यालयों में काम करने वाले व्यक्ति एक तरह से कार्यालयी हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। इसलिए कार्यालयी हिन्दी अपने-आप में व्यापक अर्थ की अभिव्यंजना रखती है।

कार्यालयी हिन्दी का अभिप्राय

भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। अलग-अलग क्षेत्रों में भाषा का रूप भी बदलता है। दैनिक जीवन में मनुष्य अपने सम्प्रेषण के लिए जिस भाषा का प्रयोग करता है वह मौखिक व बोलचाल की भाषा होती है। वैसे तो भाषा के प्रत्येक रूप में मानकता का निर्वाह होना आवश्यक है लेकिन बोलचाल की भाषा में यदि मानकता का प्रयोग नहीं भी किया जाता तब भी वह सामाजिक जीवन में लगातार प्रयोग में अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त आधार रहती है। इसी तरह सांस्कृतिक संदर्भं में भाषा का रूप लोकगीतों में जिस प्रकार होता है वह मौखिक परम्परा के कारण मानकता का निर्वाह भले ही न करती हो लेकिन हमारी सांस्कृतिक अस्मिता को संजोए रखने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी तरह साहित्यिक हिन्दी का स्वरूप जहाँ अपनी परिनिष्ठता के कारण अपनी अलग पहचान रखता है वहीं आंचलिक साहित्य में क्षेत्रीतया के प्रभाव के कारण साहित्यिक हिन्दी एक नए रूप में भी हमारे सामने आती है। इसलिए साहित्यिक हिन्दी का रूप भी पूर्णतः निर्धारित नहीं किया जा सकता।

वर्तमान दौर में तकनीकी के आगमन के बाद जनसंचार के विभिन्न माध्यमों में हिन्दी का वर्चस्व तेजी से बढ़ने लगा है। जनसंचार के इन माध्यमों की हिन्दी सामान्य बोलचाल के निकट होती है। लेकिन मानकता की दृष्टि से वह भी नि्धारित मापदण्ड पर सही नहीं ठहरती। इसका कारण है कि जनसंचार का मुख्य उद्दश्य समाज के विशाल वर्ग तक सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की सूचना को सम्प्रेषण करना है और भारत जैसे विशाल राष्ट्र में सरल और सुबोध भाषा के द्वारा ही विशाल जनसमुदाय तक अभिव्यक्ति सम्भव हो सकती है। इसीलिए जनसंचार के माध्यमों में हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के शब्दों का व्यावहारिक प्रयोग उसे मानकता से परे करता है।

इन रूपों के अतिरिक्त व्यापार, वाणिज्य, विधि, खेल आदि अनेक क्षेत्रों में हिन्दी के रूप पारिभाषिक के साथ-साथ स्वतंत्र भी थे। इन क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट भाषा के कारण इसका प्रयोग सीमित रूप में ही किया जा सकता था। इन क्षेत्रों से सम्बन्धित लोगों में ही इस भाषा के अर्थ को समझने की क्षमता होती है। लेकिन इन क्षेत्रों में हिन्दी का मानकीकृत रूप ही स्वीकार्य होता है

हिन्दी के इन विभिन्न रूपों और अनेक अन्य रूपों में भाषा का जो स्वरूप होता है वह कार्यालयी हिन्दी में प्रयुक्त नहीं होता। कार्यालयी हिन्दी इससे भिन्न पूर्णतः मानक एवं पारिभाषिक शब्दों को ग्रहण करके चलती है। कार्यालयी हिन्दी सामान्य रूप से वह हिन्दी है जिसका प्रयोग कार्यालयों के दैनिक कामकाज में व्यवहार में लिया जाता है। विभिन्न विद्वानों ने यह माना है कि चाहे वह किसी भी क्षेत्र का कार्यालय हो, उसमें प्रयोग में ली जाने वाली हिन्दी कार्यालयी हिन्दी ही कहलाती है। डॉ. डी.के. जैन का मत है कि-"वह हिन्दी जिसका दैनिक व्यवहार, पत्राचार, वाणिज्य, व्यापार, प्रशासन, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, योग, संगीत, ज्योतिष, रसायनशास्त्र आदि क्षेत्रों में प्रयोग होता है, उसे कार्यालयी या कामकाजी हिन्दी कहा जाता है।" (प्रयोजनमूलक हिन्दी, पृष्ठ 9) इसी तरह डॉ. उषा तिवारी का मानना है कि "सरकारी कामकाज में प्रयुक्त होनें वाली भाषा को प्रशासनिक हिन्द्री या कार्यालयीन हिन्दी कहा जाता है। हिन्दी का वह स्वरूप जिसमें प्रशासन के काम में आने वाले शब्द, वाक्य अधिक प्रयोग में आते हों।

इनु दोनों परिभाषाओं में देखा जाए तो एक. परिभाषा कार्यालय के कार्यक्षेत्र को अत्यन्त विस्तृत दिखाता है वहीं दूसरी परिभाषा में बह केवल सरकारी कार्यालयों में प्रयोग में ली जाने वाली भाषा ही है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यालयों की उपस्थित के कारण कार्यालय को किसी भी परिभाषा के वृत्त में समेटना बहुत कठिन कार्य है किन्तु प्रचलन की दृष्टि से कार्यालयी हिन्दी को सरकारी कार्यालयों में प्रयोग में ली जाने वाली भाषा के रूप में ही जाना है । इन सरकारी कार्यालयों में केन्द्र अथवा राज्य सरकारों के अपने अथवा उनके अधीनस्थ आने वाले विभिन्न मंत्रालय तथा उनके अधीन आने वाले संस्थान, विभाग अथवा उपविभाग एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों आदि को शामिल किया जाता है। सरकार का कोई भी कार्यालय, चाहे वह उसकी अधीनस्थ हो अथवा सम्बद्ध हो, वह सरकारी कार्यालय ही कहा जाएगा। इसलिए इन कार्यालयों के कामकाज में प्रयोग की जाने वाली हिन्दी को कार्यालयी हिन्दी का जाता है।

• सावैधनिक रूप से कार्यालयी हिन्दी के लिए 'राजभाषा हिन्दी' का प्रयोग किया जाता है। इसलिए कार्यालयी हिन्दी के उद्देश्य को समझने के लिए राजभाषा हिन्दी तथा उसके संवैधानिक प्रावधानों को जानना आवश्यक है। सामान्य नागरिक 'राजभाषा हिन्दी' को भ्रमवश राज्यों की हिन्दी मानते आए हैं। लेकिन राजभाषा का प्रयोग अंग्रेजी में 'Official Language' के रूप में किया जाता है। इसका तात्पर्य 'राज' की भाषा से है। 'राज की भाषा' से यहाँ अभिप्राय राज-काज की भाषा, प्रशासन की भाषा, सरकारी काम-काज की भाषा या कार्यालय की भाषा से है।

यह विदित ही है हिन्दी भाषा पिछले एक हजार वर्षों में भारत की प्रधान भाषा रही है। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने सबसे पहले राजकाज के लिए हिन्दी भाषा का ' ही प्रयोग किया था क्योंकि उस समय तक भारत की जनता अंग्रेजी नहीं जानती थी। लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजी भाषा को वर्चस्व की भाषा बनाने तथा अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति आकर्षित करने के लिए सन् 1835 ई. में लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी को शासन की भाषा के रूप में स्थापित किया। मैकाले की उस नीति का ही परिणाम रहा कि भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् राजभाषा के लिए हुई बैठक में हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी का नाम भी चर्चा में रखा गया। लेकिन गांधी जी किसी भी तरह से अंग्रेजी के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने खुले तौर पर हिन्दी को राजभाषा बनाने का समर्थन किया। किन्तु अंग्रेज सरकार के पिट्ठू रहने वाले अनेक राजनीतिज्ञों ने भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी को भी रखा।

सन् 1947 में संविधान सभा के गठन के बाद से ही राजभाषा पर चर्चा की जाने लगी। उस समय हिन्दुस्तानी या अंग्रेजी में से किसी एक को राजकाज की भाषा बनाने पर बहस हुई। बाद में 'हिन्दुस्तानी' के स्थान पर 'हिन्दी' शब्द को रख दिया गया। किन्तु लम्बे समय तक चली बहसों के बाद आखिरकार 14 सितम्बर, 1949 को हिन्दी को 'राजभाषा' के रूप में स्वीकार कर लिया गया। उसी दौरान उस प्रावधान में यह भी सम्मिलित कर दिया गया कि अंग्रेजी पन्द्रह वर्षों तक हिन्दी की सह-राजभाषा के रूप में काम करती रहेगी। लेकिन विभिन्न संशोधनों और आपसी असहमतियों के कारण संवैधानिक रूप से हिन्दी 'राजभाषा' होते हुए भी अंग्रेजी ही शासन व्यवस्था की भाषा बनी हुई है।

14 सितम्बर, 1949 को भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। इन अनुच्छेदों को अध्यायों में विभाजित किया गया। उन संवैधानिक प्रावधानों को यथानुरूप यहाँ दिया जा रहा है

1.संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप होगा।

2.खण्ड ( 1 ) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारम्भ से पन्द्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का • प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारम्भ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था। परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।

3.इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद उक्त पन्द्रह वर्ष की अवधि के पश्चात् विधि द्वारा,

(क) भाषा का या

(ख) अंकों के देवनागरी रूप का

ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपवन्धित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाये।

"अनुच्छेद 344- राजभाषा के सम्बन्ध में आयोग और संसद की समिति" 1.राष्ट्रपति, इस संविधान के प्रारम्भ से पाँच वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात् ऐसे प्रारम्भ से दस वर्ष की समाप्ति पर, आदेश द्वारा एक आयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष और आठवीं अनुसूची में उल्लिखित विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनको राष्ट्रपति नियुक्त करे और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।

2.आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को:-

(क) संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग;

(ख) संघ के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बन्धनों;

(ग) अनुच्छेद 348 में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा;

(घ) संघ के किसी एक या अधिक उल्लिखित प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाने वाले अंकों के रूप;

(ड) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रदि की भाषा और उनके प्रयोग के सम्बन्ध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्देशित किए गए किसी अन्य विषय के बारे में सिफारिश करें।

3.खण्ड (2) के अधीन अपनी सिफारिशें करने में आयोग भ औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के सम्बन्ध में भारत की अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक ध्यान रखेगा।

4. एक समिति गठित की जाएगी जो तीस सदस्यों से मिलकर बनेगी जिनमें से बीस लोकसभा के सदस्य होंगे और दस राज्यसभा के सदस्य होंगे जो क्रमशः • लोकसभा के सदस्यों और राज्यसभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे।

5. समिति का कर्तव्य होगा कि वह खण्ड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशें की परीक्षा करे और राष्ट्रपति को उन पर अपनी राय के बारे में प्रतिवेदन दे।

6. अनुच्छेद 343 में किसी बात के होते हुए भी राष्ट्रपति खण्ड (5) में निर्दिष्ट प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात् उस सम्पूर्ण प्रतिवेदन के या उसके किसी भाग के अनुसार निर्देश दे सकेगा। के

अध्याय-2 प्रादेशिक भाषाएँ "अनुच्छेद 345 राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ"

अनुच्छेद 346) और अनुच्छेद (347) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, हुए, किसी राज्य का विधान-मण्डल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिन्दी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार किया जा सकेगा। परन्तु जब तक राज्य का विधान-मण्डल, विधि द्वारा अन्यथा उपबन्ध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।

संघ में शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने के लिए तत्समय प्राधिकृत भाषा एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच तथा किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा होगी। परन्तु यदि दो या अधिक राज्य यह करार करते हैं कि उन राज्यों के बीच पत्रादि की राजभाषा हिन्दी भाषा होगी तो ऐसे पत्रादि के लिए उस भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा।

"अनुच्छेद 347 किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली - जाने वाली भाषा के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध" यदि इस निमित्त मांग किए जाने पर राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य की जनसंख्या का पर्याप्त भाग यह चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता दी जाए तो वह निर्देश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए, जो वह विनिर्दिष्ट करें, शासकी मान्यता दी जाए।

अध्याय 3 उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों आदि की भाषा "अनुच्छेद 348 उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों,विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा"

1.इस भाग के पूर्वगामी उपबन्धों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा, उपबन्ध न करें तब तक:-

(क) उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अंग्रेजी भाषा में होंगी।

(ख)(i) संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मण्डल के सदन या प्रत्येक सदन में पुनः स्थापित किए जाने वाले सभी विधेयकों या प्रस्तावित किए जाने वाले उनके संशोधनों के, (ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मण्डल द्वारा पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित सभी अध्यादेशों के, और (iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मण्डल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे।

2.खण्ड (1) के उपखण्ड (क) के किसी बात की होते हुए भी, किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा। परन्तु इस खण्ड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होगी।

3.खण्ड (1) के उपखण्ड (ख) में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी राज्य के विधान-मण्डल ने, उस विधान-मण्डल में पुनः स्थापित विधेयकों या उसके द्वारा पारित अधिनियमों में अथवा उस राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित अध्यादेशों में अथवा उस उपखण्ड के पैरा (पअ) में निर्दिष्ट किसी आदेश, नियम, विनियम या उपविधि में प्रयोग के लिए अंग्रेजी भाषा से भिन्न कोई भाषा विहित की है वहीं उस • राज्य के राजपत्र में उस राज्य के राज्यपाल के प्राधिकार से प्रकाशित अग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद उस अनुच्छेद के अधीन उसका अंग्रेजी भाषा में प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा।

"अनुच्छेद 349 भाषा से सम्बन्धित कुछ विधियाँ, अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया"

इस संविधान के प्रारम्भ से पन्द्रह वर्ष की अवधि के दौरान, अनुच्छेद 348 के खण्ड (1) में उल्लिखित किसी प्रयोजन के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा के लिए उपबन्ध करने वाला कोई विधेयक या संशोधन संसद के किसी सदन में राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पुनः स्थापित या प्रस्तावित नहीं किया जाएगा और राष्ट्रपति किसी ऐसे विधेयक को पुनः स्थापित या किसी ऐसे संशोधन को प्रस्तावित किए जाने की मंजूरी अनुच्छेद 344 के खण्ड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों पर और उस अनुच्छेद के खण्ड (1) के अधीन गठित समिति के प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात ही देगा, अन्यथा नहीं।

अध्याय-4 विशेष निर्देश - "अनुच्छेद 350 व्यथा के निवारण के लिए अध्यावेदन में प्रयोग की जाने वाली भाषा"

प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा।

"अनुच्छेद 350 (क) प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं"

प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निर्देश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबन्ध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है।

"अनुच्छेद 350 (ख) भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष अधिकारी"

1.भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के लिए एक विशेष अधिकारी होगा जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा। 2.विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए उपबन्धित रक्षोपायों से सम्बन्धित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के सम्बन्ध में ऐसे अन्तरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करें, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और सम्बन्धित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।

"अनुच्छेद 351 हिन्दी भाषा के विकास के लिए निर्देश"

संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विर्निदिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भण्डार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। " उपर्युक्त प्रावधानों के अतिरिक्त अनुच्छेद 120 में 'संसद में प्रयुक्त होने वाली भाषा' के सम्बन्ध में निर्देश दिया गया कि संसद में कार्य हिन्दी या अंग्रेजी में किया • जाएगा। किन्तु राज्यसभा का सभापति या लोकसभा का अध्यक्ष अथवा ऐसे रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को जो हिन्दी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, अपनी मातृभाषा में सदन को सम्बोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा। इसी तरह अनुच्छेद 210 के द्वारा विधान मण्डल में प्रयुक्त होने वाली भाषा के सम्बन्ध में निर्देश देते हुए लिखा गया है कि राज्य के विधान मण्डल अपना कार्य राज्य की भाषा या भाषाओं में या हिन्दी अथवा अंग्रेजी में कर सकेंगे। समय-समय पर अनेक अनुच्छेदों तथा उपबन्धों द्वारा कार्यालयी हिन्दी के समुचित प्रयोग के सम्बन्ध में भी सरकार द्वारा दिशा निर्देश जारी किए गए। जिससे हिन्दी को कार्यलय में प्रयोग की भाषा बनाया जा सके।

भारत चूँकि एक विशाल राष्ट्र है जिसकी अधिकांश जनता हिन्दी भाषी है और शासन के साथ उसका सीधा सम्बन्ध स्थापित करने के लिए सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी से बेहतर कोई भाषा हो ही नहीं सकती। इसलिए यह आवश्यक था दि • स्वतंत्रता के पश्चात् से ही शासन और समाज के बीच 'एक भाषा' द्वारा समन्या स्थापित किया जा सके। इसलिए राजभाषा के रूप में हिन्दी भाषा को रखना और राजभाषा प्रावधानों के अनुसार अन्य क्षेत्रों में भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार द्वारा उसे राष्ट्रीय और वैश्विक बनाना इसका वास्तविक उद्देश्य रहा। लेकिन राजभाषा सम्बन्धी संवैधानिक प्रावधानों में अनेक उपबन्धों द्वारा अंग्रेजी को पन्द्रह वर्षों और उसके उपरान्त निरन्तर सह-राजभाषा बनाए रखना हिन्दी के लिए अहितकारी हुआ।

● भारत की अधिकांश जनता गांवों में बसती है और ग्रामीण प्रदेशों में हिन्दी को । वह विभिन्न बोलियाँ वहाँ की बोलचाल की भाषा के रूप में अभिव्यक्ति का आधार बनती हैं। लेकिन इन्हीं क्षेत्रों में एक ऐसा तबका भी है जो अभी तक अशिक्षित है। हिन्दी बोल और समझ तो सकता है, उसका मौखिक प्रयोग भी कर सकता है लेकिन उसके लिए रोजगार का महत्त्व अन्य चीजों से अधिक है। ऐसे में राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों को बनाते हुए हिन्दी के प्रचार-प्रसार की दिशा में यह भी निर्दिष्ट किया गया कि भारत के सभी भाषा-भाषी लोगों को हिन्दी पढ़ना लिखना सिखाया जा सके। लेकिन अनेक भाषाओं का राष्ट्र होने के कारण और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते हिन्दी राजभाषा तो बन गई किन्तु उसे अभी तक वह सम्मान प्राप्त नहीं हो सका जो वास्तव में किसी एक राष्ट्र की प्रधान भाषा को मिलना चाहिए।

वास्तव में राजभाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित करने के पीछे आरम्भिक उद्देश्य भी यही था कि भारत के सभी शासकीय कार्य 'कार्यालयी हिन्दी' के माध्यम से इसलिए किए जायें जिससे भारत की अधिकांश जनता शासन द्वारा लिए गए नीतिगत निर्णयों से परिचित हो सके। इन नीतिगत निर्णयों का सम्बन्ध सीधे-सीधे आम सामाजिक से होता है। ऐसे में आम सामाजिक तक यदि सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों की जानकारी पूर्ण रूप से न पहुँच सके तो आम सामाजिक शासन की सुविधाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाएगा। सरकार का कार्य समाज और सामाजिकों का विकास करना है। वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान अभी तक विकासशील राष्ट्र के रूप में ही है और विश्व के कई ऐसे देश हैं जिनकी जनसंख्या भारत के एक छोटे से राज्य की जनसंख्या से भी बहुत कम है, किन्तु वे राष्ट्र विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में रखे जाते हैं। उन राष्ट्रों ने अपनी राष्ट्र की प्रधान भाषा को ही अपने काम-काज की भाषा में प्रयोग में लिया, जिससे वहाँ का शासन-तंत्र एक ओर तो सामाजिकों से सीधे संवाद कर पाने में सक्षम हुआ वहीं दूसरी ओर सामाजिक भी अपनी भाषा में ही सरकार द्वारा बनाए गए नियमों और प्रावधानों को सहजता से समझ पाने से अपने अधिकारों के प्रति सचेत हुए।

भारत में इसके विपरीत स्थिति आज तक बनी हुई है। ऐसे राज्यों में जहाँ उस राज्य की कार्यालयी भाषा हिन्दी है वहाँ भी अभी तक उच्च पदों पर अंग्रेजी मानसिकता वाले लोगों का आधिपत्य है। ऐसे में न तो वे अपने अधिकारों को जान पाते हैं और न हीं शासन से सीधा संवाद कर पाते हैं।

इतना ही नहीं, भारत के न्यायालयों को अंग्रेजी में कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई। यह दुर्भाग्य ही है कि भारत में विधि के क्षेत्र में हिन्दी की जितनी उपेक्षा की गई उतनी किसी अन्य क्षेत्र में नहीं। अधिकांश न्यायालयों में प्रस्तुत किए जाने वाद और होने वाली बहसें आज भी अंग्रेजी में होती है। अपने-अपने वाद के • सम्बन्ध में वादी या प्रतिवादी को यह भी नहीं पता चल पाता कि न्यायालय में प्रस्तुत उसके बाद को अधिवक्ता (वकील) द्वारा कितनी मजबूती से प्रस्तुत किया है और उसने उस वाद को उसके पक्ष में प्रस्तुत किया भी है अथवा नहीं यह भी विचार का विषय हो सकता है। ऐसे में न्यायालयों में यदि काम-काज की भाषा हिन्दी होती तो निश्चित रूप से समाज के आम नागरिक को अपने वाद के समय अपने अधिवक्ताओं द्वारा रखे जाने वाले तर्कों की जानकारी पूर्ण रूप से मिल सकती और वह अपने लिए उचित न्याय की आशा कर सकता। इसीलिए कार्यालयी हिन्दी का यह भी उद्देश्य होता है कि वह आम सामाजिक के साथ होने वाले अन्याय को रोक सके और उसे न्याय दिला पाने में समर्थ हो ।

• जिस समय राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों को रखा गया था उस समय उसमें यह भी सुनिश्चित किया गया कि जहाँ भी राजभाषा हिन्दी में कार्य करते हुए कर्मचारी को परेशानी का सामना करना पड़े वहाँ अंग्रेजी के शब्दों को यथावत् देवनागरी में लिख सकता है। चूँकि प्रशासन की अपनी सुनिश्चित शब्दावली होती है ऐसे में अंग्रेजी के अनेक शब्दों का अनुवाद सम्भव ही नहीं हो सकता। इसीलिए उन शब्दों के स्थान पर किसी अन्य शब्द की अपेक्षाकृत अंग्रेजी के शब्द को देवनागरी में लिप्यंतरित कर उसका प्रयोग किया जा सकता है जिससे सामान्य व्यक्ति उस पत्र के मंतव्य को समझ सके।

इसलिए देखा जाए तो कार्यालयी हिन्दी का वास्तविक उद्देश्य समाज के बहुसंख्यक वर्ग तक शासन की नीतियों को सहज रूप से पहुँचाते हुए सामान्य नागरिक को उनके अधिकारों के प्रति जानकारी देना; शासन और प्रजा के बीच सीधा-संवाद स्थापित करना तथा राष्ट्र के विकास में सामान्य नागरिक की सीधी भागीदारी सुनिश्चित करना रहा है। कार्यालयी हिन्दी द्वारा प्रशासन की व्यवस्था में सामान्य नागरिकों को प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त कराना सहज है। जब तक प्रशासन और प्रजा में प्रत्यक्ष संवाद नहीं होगा तब तक बिचौलियों की भूमिका समाज में भ्रष्टाचार

राजभाषा का अर्थ है संविधान द्वारा स्वीकृत सरकारी कामकाज की भाषा। किसी देश का सरकारी कामकाज जिस भाषा में करने का कोई निर्देश संविधान के प्रावधानों द्वारा दिया जाता है, वह उस देश की राजभाषा कही जाती है।

भारत के संविधान में हिन्दी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया गया है, किन्तु साथ ही यह भी प्रावधान किया गया है कि अंग्रेजी भाषा में भी केन्द्र सरकार अपना कामकाज तब तक कर सकती है जब तक हिन्दी पूरी तरह राजभाषा के रूप में स्वीकार्य नहीं हो जाती।

प्रारम्भ में संविधान लागू होते समय सन् 1950 में यह समय सीमा 15 वर्ष के लिए थी अर्थात अंग्रेजी का प्रयोग सरकारी कामकाज के लिए सन् 1965 तक ही हो सकता था, किन्तु बाद में संविधान संशोधन के द्वारा इस अवधि को अनिश्चितकाल के लिए बढ़ा दिया गया। यही कारण है कि संविधान द्वारा हिन्दी को राजभाषा घोषित किये जाने पर भी केन्द्र सरकार का अधिकांश सरकारी कामकाज अंग्रेजी में हो रहा है और वह अभी तक अपना वर्चस्व बनाए हुए है।

केन्द्र सरकार की राजभाषा के अतिरिक्त अनेक राज्यों की राजभाषा के रूप में भी हिन्दी का प्रयोग स्वीकृत है। जिन राज्यों की राजभाषा हिन्दी स्वीकृत है, वे हैं- उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ एवं उत्तरांचल। इन राज्यों के अलावा अन्य राज्यों ने अपनी प्रादेशिक भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया है। यथा-पंजाब की राजभाषा पंजाबी, बंगाल की राजभाषा बंगला, आन्ध्र प्रदेश की राजभाषा तैंलुगू तथा कर्नाटक की राजभाषा कन्नड़ है। इन प्रान्तों में भी सरकारी कामकाज में प्रान्तीय भाषा में होने के साथ-साथ अंग्रेजों में हो रहा है।

निष्कर्ष यह है कि अंग्रेजी संविधान द्वारा भले ही किसी राज्य की राजभाषा स्वीकृत न की गई हो, किन्तु व्यावहारिक रूप में उसका प्रयोग एक बहुत बड़े सरकारी कर्मचारी वर्ग द्वारा सरकारी कामकाज के लिए किया जा रहा है।

इस अधिनियम के अन्तर्गत हिन्दी का अधिकाधिक प्रयोग • करने के लिए कुछ प्रभावी कदम उठाये गये है। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं:- 1.भारत संघ के राज्य तीन वर्गों में विभक्त किये गए हैं:-

(क) उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, • हिमाचल प्रदेश और संघ क्षेत्र दिल्ली। (ये सभी हिन्दी भाषी प्रदेश हैं।)

(ख) इस श्रेणी में पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, चण्डीगढ़, अण्डमान-निकोबार को रखा गया है।

(ग) शेष सभी प्रदेश एवं संघ शासित क्षेत्र 'ग' श्रेणी में. रखे गये।

इस वर्गीकरण के उपरान्त यह निर्देश दिया गया कि:-

1.केन्द्रीय कार्यालयों से 'क' श्रेणी के राज्यों को भेजे जाने वाले सभी पत्र हिन्दी में देवनागरी लिपि में भेजे जायेंगे। यदि कोई पत्र अंग्रेजी में भेजा जा रहा है, तो हिन्दी में अनुवाद भी अवश्य भेजा जायेगा।

2.'ख' श्रेणी के राज्यों से पत्र व्यवहार हिन्दी अंग्रेजी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है

3.'ग' श्रेणी के राज्यों से पत्र व्यवहार अंग्रेजी में किया जायेगा।

4.केन्द्रीय कार्यालयों में हिन्दी में आगत पत्रों का उत्तर अनिवार्यतः हिन्दी में दिया जायेगा।

5.केन्द्र सरकार के कार्यालयों में सभी प्रपत्र, रजिस्टर, हिन्दी, अंग्रेजी दोनों में होंगे।

6.केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणी लिख सकेंगे।

7.जहां 80 प्रतिशत से अधिक कर्मचारी हिन्दी में कार्य करते हों, वहां टिप्पणी, प्रारूप आदि काम केवल हिन्दी में ही करने को कहा जा सकता है।

8.प्रत्येक कार्यालय के प्रधान का यह दायित्व होगा कि वह राजभाषा अधिनियमों एवं उपबन्धों का समुचित अनुपालन कराये।

स्पष्ट है कि संवैधानिक दृष्टि से हिन्दी की स्थिति बड़ी मजबूत है, किन्तु अंग्रेजी जानने वाले प्रशासनिक अधिकारियों के षड्यन्त्र के कारण अभी भी हिन्दी में शत-प्रतिशत काम केन्द्र सरकार के कार्यालय में नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में हिन्दी अपना राजभाषा का दर्जा पूरी तरह प्राप्त नहीं कर सकी है।

assignment ka arth kya hai

  • पुस्तक:कार्यालयी हिंदी
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इकाई पाठ योजना क्या होती है, इकाई योजना के प्रकार,इकाई योजना के सोपान

इस पोस्ट में हम लोग इकाई पाठ योजना, Unit Plan in hindi, इकाई पाठ योजना के प्रकार, इकाई पाठ योजना के सोपान, Steps of the Unit Plan in hindi, इकाई पाठ योजना की विशेषताएँ, Characteristics of Unit Plan in hindi, इकाई पाठ योजना का प्रारूप, इकाई पाठ योजना की सीमाएँ , Limitations of Unit plan in hindi, आदि विषयों पर चर्चा करेगें।

Table of Contents

 इकाई पाठ योजना (Unit Plan)

शिक्षण हेतु बनाई जाने वाली विभिन्न योजनाओं में से इकाई योजना अल्पकालिक योजना की श्रेणी में आती है। इसमें ऐसे प्रकरणों तथा अनुभवों को रखा जाता है जो परस्पर सम्बन्धित हों, जिन्हें एक साथ पढ़ाया जा सके, जैसे-‘व्यक्तित्व’ एक इकाई है, इसमें व्यक्तित्व का विभिन्न दृष्टिकोणों से अर्थ एवं परिभाषा, व्यक्तित्व के आयाम, व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारण, व्यक्तित्व मापन की विधियाँ आदि प्रकरण आते हैं। इस प्रकार इकाई पाठ्यक्रम का एक ऐसा एकीकृत अंश होता है जिसमें स्थित विभिन्न प्रकरण परस्पर सम्बन्धित होते हैं।

‘इकाई’ की धारणा को शिक्षा क्षेत्र में लाने का श्रेय हरबार्ट को जाता है। उन्होंने विषयवस्तु के पारस्परिक सम्बन्धों तथा एकीकरण पर बल दिया। इसका प्रयोग लगभग 1920 ई.से प्रारम्भ हुआ। शनैः-शनैः इकाई का अर्थ किसी समस्या योजना से सम्बन्धित सीखने वाली क्रियाओं की समग्रता के रूप में स्वीकार किया जाने लगा।

आधुनिक युग में ‘यूनिट’ अथवा ‘इकाई’ का प्रयोग पाठ्यक्रम निर्माण तथा शिक्षण पद्धति के रूप में किया जा रहा है।

रिस्क- “इकाई में पूर्वनियोजित अनुभव और क्रियाएँ निहित हैं और वे किसी समस्या, परिस्थिति, रुचि या वांछित परिणाम पर आधारित होती हैं।”

प्रेस्टॉन- “एक जैसी वस्तुओं का समूह, जो कि अधिकांश द्वारा बोधगम्य हो; इकाई कहलाती है।”

इकाई पाठ योजना के प्रकार

इकाई योजनाएँ मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं- विषयवस्तु की इकाई योजना तथा अनुभव की इकाई योजना।

विषयवस्तु की इकाई योजना के तीन भेद हैं :

(1) पाठ पर आधारित इकाई योजना,

(2) सूत्र या सिद्धान्त पर आधारित इकाई योजना,

(3) मौरीसन इकाई योजना।

अनुभव की इकाई योजना के भी तीन प्रकार हैं : 

(1) उद्देश्य आधारित,

(2) रुचि आधारित,

(3) आवश्यकता आधारित ।

इकाई पाठ योजना के सोपान (Steps of the Unit Plan)

इकाई योजना में किन सोपानों को रखा जाये, इस विषय में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं :

रिस्क ने इकाई योजना में सात सोपानों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार हैं :

(i) उद्देश्यों का चयन,

(ii) इकाई खण्डों का विभाजन,

(iii) इकाई खण्डों का विकास-खण्ड के विशिष्ट उद्देश्यों का चयन, प्रत्येक खण्ड के क्षेत्र का निर्धारण, उपयुक्त छात्र-क्रियाओं का चयन,

(iv) इकाई की प्रस्तावना के लिए तैयारी, व्यक्तिगत विभिन्नताओं के लिए व्यवस्था,

(vi) प्रगति का मूल्यांकन,

(vii) सन्दर्भ पुस्तकों तथा शिक्षण सामग्री का चयन ।

ग्राम्बस तथा आईवर्सन ने इकाई-योजना के लिए चार सोपान प्रस्तुत किये हैं-

प्रस्तावना, नियोजन, अनुसंधान तथा अवबोध ।

इकाई पाठ योजना(Unit Plan)

इकाईः  भारत में संघीय शासन व्यवस्था

उपइकाई या इकाई का खण्डों में विभाजन :

(अ) संघीय कार्यपालिका :

(i) राष्ट्रपति का पद एवं उसका महत्त्व,

(ii) राष्ट्रपति का निर्वाचन,

(iii) राष्ट्रपति के अधिकार,

(iv) प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिपरिषद् की नियुक्तियाँ एवं उनके कार्य

(v) उपराष्ट्रपति,

(vi) राष्ट्रपति एवं मन्त्रीपरिषद के मध्य सम्बन्ध ।

(ब) संघीय व्यवस्थापिका:

(i) लोकसभा,

(ii) राज्यसभा,

(iii) संसद,

(iv) संसद और मन्त्रिपरिषद् के मध्य सम्बन्ध,

(v) राष्ट्रपति और संसद के मध्य सम्बन्ध,

(vi) मन्त्रियों का व्यक्तिगत व सामूहिक उत्तरदायित्व ।

(स) संघीय न्यायपालिका:

(i) सर्वोच्च न्यायालय का गठन,

(ii) न्यायाधीश व मुख्य न्यायाधीश की नियुक्तियाँ

(ii) सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न क्षेत्राधिकार।

इकाई के सामान्य उद्देश्य :

(क) ज्ञानात्मक उद्देश्य :

छात्र इस इकाई के अध्ययन से निम्न तथ्यों व धारणाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे :

1. संघीय कार्यपालिका के निर्माणक तत्त्वों का ज्ञान,

2. राष्ट्रपति की निर्वाचन-विधि का ज्ञान,

3. राष्ट्रपति-पद की योग्याताओं एवं कार्यकाल का ज्ञान,

4. राष्ट्रपति के अधिकारों का ज्ञान,

5. मंत्रि-परिषद् के संगठन का ज्ञान,

6. प्रधानमंत्री की नियुक्ति योग्यता कार्यकाल, अधिकार तथा उसकी स्थिति का ज्ञान,

7. मन्त्रि-परिषद् के अधिकारों, कर्तव्यों तथा उसके संसद एवं राष्ट्रपति के पारस्परिक सम्बन्धों का ज्ञान,

8. उपराष्ट्रपति के निर्वाचन कार्यकाल.योग्यता तथा उसके अधिकारों का ज्ञान,

9. राष्ट्रपति पद की आवश्यकता एवं उसके महत्त्व का ज्ञान,

10. लोकसभा की रचना, उसके पदाधिकारियों, कार्य-प्रणाली तथा अधिकारों का ज्ञान,

11. राज्यसभा की रचना, उसके पदाधिकारियों, कार्य-प्रणाली, अधिकार तथा उसकी स्थिति का ज्ञान,

12. संसद के कार्यों एवं अधिकारों का ज्ञान,

13. राष्ट्रपति तथा संसद के पारस्परिक सम्बन्धों का ज्ञान,

14. सर्वोच्च न्यायालय के संगठन एवं उसकी स्थिति का ज्ञान,

15. सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र का ज्ञान

(ख) अवबोध (Understanding) :

1. प्रत्येक नागरिक को संघीय शासन-व्यवस्था की जानकारी होनी चाहिए, 

2. स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिक अपने राष्ट्र एवं उसकी सरकार के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ होते हैं,

3. राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च शासक होता है, परन्तु व्यवहार में उसके समस्त अधिकारों का उपयोग प्रधानमंत्री और मंत्रि-परिषद् करते हैं,

4. राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका होती है,

5. प्रधानमंत्री तथा मंत्रि-परिषद् वास्तविक कार्यपालिका होती है,

6. संसदात्मक शासन-प्रणाली में संसद में सर्वोच्च सत्ता निहित होती है,

7. भारतीय शासन-व्यवस्था संघात्मक है,

8. भारतीय संविधान में स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था है,

9. सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक एवं व्याख्या करने वाला है,

10. सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का रक्षक है,

11. मंत्रि-परिषद संसद के प्रति उत्तरदायी होती है और वह उसे अपदस्थ कर सकती।

(ग) योग्यताएँ (Abilities) :

1. शासन-व्यवस्था को अपने समाज की उन्नति के योग्य बनाना

2. छात्रों में सार्वजनिक हित की प्रगति में व्यक्तिगत बलिदान के भाव को जागृत करना,

3. अपने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए जागरूक रहने के लिए अभ्यस्त बनाना,

4. विरोधी विचारों तथा प्रचार में से सत्य को निकालने के लिए तत्पर रहना।

(घ) अभिवृत्ति तथा रुचि (Attitudes & Interests) :

1. उत्तम शासन-व्यवस्था में सहयोग की भावना विकसित करना

2. सच्चा न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की भावना के प्रति रुचि उत्पन्न करना,

3. सार्वजनिक हित के लिए स्वस्थ विरोध की भावना विकसित करना,

4. राष्ट्रीय एकता के विरोधी तत्त्वों- भाषा, साम्प्रदायिकता,प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता,जातिवाद। आदि के प्रति जागरूक रखना,

5. जनहितकारी भावनाओं का विकास करना,

6. राष्ट्र की उन्नति के लिए कार्य करने की रुचि उत्पन्न करना,

7. लोकतंत्रात्मक शासन के नियमों का पालन करने में रुचि उत्पन्न करना,

8. न्याय में रुचि उत्पन्न करना।

(ङ) प्रयोगात्मक (Application):

1. शासन-व्यवस्था में नागरिकों की हैसियत से सहयोग देंगे ,

2. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक तत्त्वों को दूर करने में सहयोग देंगे.

3. देश एवं शासन के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, 4. राष्ट्र तथा समाज की समृद्धि में सहयोग देंगे,

4. शासन की क्रियाओं को लघ रूप में विद्यालय में संगठित एवं संचालित करेंगे ।। (च) कौशल (Skills):

5.राष्टपति एवं मंन्त्रि-परिषद्, मन्त्रि-परिषद् एवं संसद तथा राष्ट्रपति एवं संसद के पारस्परिक सम्बन्धों को रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित करेंगे,

2. संघीय शासन-व्यवस्था का रेखाचित्र बनायेंगे,

3. संगठनात्मक तथा क्रियात्मक (Functional) चार्ट बनायेंगे।

खण्ड के विशिष्ट उद्देश्य तथा क्षेत्र :

प्रत्येक इकाई-खण्ड के पृथक-पृथक विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण किया जायेगा। इसके बाद प्रत्येक खण्ड में कितनी पाठ्य-वस्तु प्रस्तुत की जानी है, इसका निर्धारण होगा।

अध्यापन-अध्ययन परिस्थितियाँ (Teaching-Learning Situations) :

इसके अन्तर्गत अध्यापक तथा छात्र-क्रियाओं को निर्धारित किया जायेगा। यहाँ इस सम्पूर्ण इकाई से सम्बन्धित कुछ क्रियाओं को निम्नलिखित शीर्षकों में दिया जा रहा है :

(अ) अध्यापक कार्य (Teacher Activities) :

1. शिक्षक, छात्रों के पूर्वज्ञान के आधार पर उतरेरणात्मक ढंग से पाठ की प्रस्तावना करेगा और खण्ड के विशिष्ट उद्देश्यों को स्पष्ट करेगा,

2. शिक्षक, छात्रों के सहयोग से खण्ड का विकास करेगा। खण्ड का विकास विभिन्न शिक्षण-पद्धतियों एवं प्रविधियों से किया जायेगा

3. शिक्षक अपने कथन द्वारा नवीन तथ्यों को छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करेगा ,

4. वह खण्डों से सम्बन्धित उपयुक्त सामग्री कक्षा के समक्ष प्रस्तुत करेगा,

5. खण्ड के विकास के साथ-साथ शिक्षक प्रमुख बातों को श्यामपट्ट पर अंकित करेगा,

6. शिक्षक, श्यामपट्ट पर संघठनात्मक चार्ट बनाकर विषय-वस्तु को स्पष्ट करेगा,

7. शिक्षक, छात्रों द्वारा लिखे गये श्यामपट्ट कार्य का निरीक्षण करेगा,

8. शिक्षक, छात्रों को घर पर करने के लिए गृह-कार्य देगा तथा समय-समय पर इसकी जाँच करेगा और आवश्यक सुझाव देगा,

9. शिक्षक कमजोर छात्रों को अलग से समय देकर उन्हें सामान्य स्तर पर लाने का प्रयास करेगा।

(ब) छात्र-क्रियायें (Student activities):

1. छात्र, शिक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्नों का सम्भावित उत्तर देंगे,

2. छात्र खण्ड-सम्बन्धी ज्ञान को ग्रहण करेंगे,

3. छात्र,शिक्षक द्वारा प्रस्तुत विषय-वस्तु को समझकर खण्ड के विकास में सहयोग कक्षा में बताये गये चार्ट व रेखाचित्र तैयार करेंगे,

5. पार्लियामेन्ट का संगठन एवं संचालन करेंगे।

6. कक्षा में राष्ट्रपति की निर्वाचन विधि को व्यवहार में लायेंगे।

7. छात्र, शिक्षक द्वारा दिये गये श्यामपट्ट-कार्य को अपनी पुस्तिकाओं में लिखेंगे।

8. छात्र दिये गये गृह-कार्य को घर से करके लायेंगे।

मूल्यांकन (Evaluation) :

छात्रों की प्रगति का विभिन्न प्रकार से मल्यांकन किया जायेगा :

(अ) निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions):

1. राष्ट्रपति पद की आवश्यकता एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।

2. राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली पर प्रकाश डालिए।

3. राष्ट्रपति के अधिकारों का वर्णन कीजिए।

4. प्रधानमन्त्री की नियुक्ति, कार्यकाल तथा उसके अधिकारों के विषय में आप क्या जानते हैं ? स्पष्ट कीजिए।

5. मन्त्रि-परिषद् के संगठन एवं उसकी शक्तियों का वर्णन कीजिए।

6. संसद के संगठन एवं अधिकारों का उल्लेख कीजिए।

7. लोकसभा तथा राज्यसभा के अधिकारों एवं शक्तियों की तुलना कीजिए।

8. उपराष्ट्रपति के निर्वाचन, कार्यकाल तथा उसकी स्थिति को स्पष्ट कीजिए।

9. सर्वोच्च न्यायालय के संगठन एवं अधिकार-क्षेत्र के विषय में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में बताइये।

(ब) लघु-उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions) :

(i) निर्वाचक मण्डल में कौन-कौन होते हैं ?

(ii) राष्ट्रपति के तीन अधिकार

(iii) राष्ट्रपति-पद की तीन योग्यताएँ

(iv) संसद के सदस्यों के मत का मान किस प्रकार निर्धारित होता है ?

(v) प्रधानमन्त्री के तीन अधिकार

(vi) संसद के तीन अधिकार

(vii) सर्वोच्च न्यायालय के कुल न्यायाधीश

(viii) सर्वोच्च न्यायालय के तीन अधिकार बताइये।

(स) वस्तुनिष्ठ (Objective Type Questions):

1. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

(i) भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर श्री……..सुशोभित हैं।

(ii) आजकल लोकसभा के अध्यक्ष……..हैं।

(iii) मंत्रि-परिषद् सामूहिक रूप से………के प्रति उत्तरदायी हैं।

(iv) आजकल सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री………हैं।

(v) सर्वोच्च न्यायालय………का रक्षक एवं उसकी व्याख्या करता है।

(vi) राष्ट्रपति………के बहुमत दल के नेता को………नियुक्त करता है। 

2. प्रत्येक प्रश्न के चार सम्भावित उत्तर दिये गये हैं, इनमें से केवल एक उत्तर सही है. सही उत्तर पर (सही) का निशान लगाओ :

(क) भारत के राष्ट्रपति हैं :

(i) भैरोंसिंह शेखावत

(ii) डॉ. के.आर. नारायणन

(ii) डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

(iv) डॉ. शंकरदयाल शर्मा

(ख) आजकल प्रधानमंत्री पद पर सुशोभित हैं :

(i) अटल बिहारी वाजपेयी

(ii) डॉ. मनमोहन सिंह

(iii) श्री विश्वनाथ प्रतापसिंह

(iv) पी.वी. नरसिम्हाराव

(ग) आजकल भारत के वित्तमंत्री हैं :

(i) पी. चिदम्बरम्

(ii) श्री इन्द्रकुमार गुजराल

(iii) यशवन्त सिन्हा

(iv) डॉ. मनमोहन सिंह

3. नीचे कुछ कथन दिये गये हैं, इनमें से जो सत्य हों, उनके समक्ष सही तथा असत्य के समक्ष क्रॉस का निशान लगाइये :

(i) राष्ट्रपति के निर्वाचन में संसद तथा राज्यों की विधानसभाओं के सभी सदस्य भाग लेते हैं।

(ii) राष्ट्रपति भारतीय सेना का सर्वोच्च कमाण्डर होता है।

(iii) राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति स्वेच्छानुसार करता है।

(iv) प्रधानमंत्री बनने के लिए लोकसभा के बहुमत दल का नेता होना आवश्यक है।

(v) लोकसभा के सदस्यों को राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा चुना जाता है।

(vi) राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

(vii) धन विधेयक संसद के दोनों सदनों में से किसी भी सदन में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

(viii) मन्त्रियों को संसद के सदस्यों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है।

(ix) सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है।

(x) सर्वोच्च न्यायालय में बीस हजार से अधिक धनराशि की अपील की जा सकती हैं।

(xi) संसद राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाकर उसे अपने पद से हटा सकती है।

(xii) राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को राज्यों के राज्यपालों की सलाह पर उसके पद से हटा सकता है।

(xiii) राष्ट्रपति राजदूतों की नियुक्ति करते समय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह लेने के लिए बाध्य है।

(xiv) प्रधानमन्त्री किसी भी केन्द्रीय मन्त्री को मतभेद होने पर हटा सकता है।

(xv) केन्द्रीय मन्त्रि-परिषद् के सभी मन्त्री सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

(द) निरीक्षण तथा प्रयोगात्मक कार्य :

शिक्षक, छात्रों के व्यवहारों का निरीक्षण करके उनकी उत्तरादायित्व की भावना, सहयोग, चारित्रिक गणों आदि की जाँच करेगा, साथ ही उनके प्रयोगात्मक कार्यों की जाँच करके उनके विभिन्न कौशलों का पता लगायेगा।

शिक्षण-सामग्री तथा सन्दर्भ पुस्तकें :

इस इकाई के लिए शिक्षक संगठनात्मक चार्ट, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा मुख्य न्यायाधीश के चित्र, भारत का मानचित्र आदि का प्रयोग करेगा; साथ ही वह निम्नलिखित संदर्भ पुस्तकों की सूची प्रदान करेगा :

1. ‘द इन्डियन कॉन्सटीट्यून्ट असेम्बली’ – गुरुमुख निहाल सिंह

2. ‘कमेन्टरी ऑन द कॉन्सटीट्यूशन ऑफ इन्डिया’ – दुर्गादास बसु

3. ‘द कॉन्सटीट्यूशन ऑफ इन्डिया’ – गवर्मेन्ट ऑफ इन्डिया

4. ‘द कॉन्सटीट्यूशन ऑफ इन्डिया’ – वी.एन. शुक्ल

5. ‘आसपेक्ट्स ऑफ इन्डियन कॉन्सटीट्यूशन’ – डॉ. एम.जी. गप्ता

(यह इकाई-योजना पाठक एवं त्यागी की पुस्तक ‘सफल शिक्षण कला’ से ली गई। है, इसके लिए लेखिका उनके प्रति आभार व्यक्त करती है)

इकाई पाठ योजना की विशेषताएँ

(characteristics of unit plan).

1. इकाई योजना के द्वारा विषयवस्तु का संगठन भली-भाँति हो जाता है।

2. इसके द्वारा क्रमबद्ध तथा नियोजित शिक्षण सम्भव है।

3. इसमें ज्ञान को पूर्ण इकाई मानकर चला जाता है अतः अधिक प्रभावशाली ढंग से ज्ञान प्राप्त होता है।

4. अध्यापक तथा छात्र की क्रियाएँ पहले ही सुनिश्चित कर दी जाती हैं।

5. इसमें वातावरण को विशेष महत्त्व दिया जाता है, अत: छात्रों में समायोजन की क्षमता का विकास होता है।

6. इसके द्वारा शिक्षण सूत्र ‘पूर्ण से अंश की ओर’ तथा गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है।

7. इकाई योजना के निर्माण से शिक्षण के सभी उद्देश्यों को प्राप्त करना सम्भव है।

इकार्ड योजना के सम्बन्ध में वाल्टर पियर्स तथा माइकल लॉर्बर ने कहा, “इकाई योजना अध्यापक” द्वारा पूर्वचिन्तन, कि शिक्षार्थी शिक्षण के अन्तराल में (सामान्यतः उसे 6 सप्ताह) क्या प्राप्त करेंगे तथा कैसे सफलतापूर्वक प्राप्त करेंगे; को प्रदर्शित करती है। इस प्रकार इकाई योजना को अध्यापक की व्यूहरचना माना गया है।

इकाई पाठ योजना की सीमाएँ (Limitations of Unit plan)

1. इकाई योजना के अनुसार शिक्षण यन्त्रवत् हो जाता है तथा मौलिकता की समाप्ति हो जाती है।

2. इसे तैयार करना एक कठिन कार्य है। इसके अनुसार पढ़ाने के लिए दक्ष एवं प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता पड़ती है।

3. इसमें सहायक सामग्री के प्रयोग पर अधिक बल दिया जाता है अतः यह अधिक महँगी है।

4. सभी प्रकार के ज्ञानार्जन के लिए यह विधि उपयुक्त नहीं है।

5. इसके द्वारा शिक्षण करने में समय बहुत अधिक लगता है।

भारतीय परिस्थितियों में जहाँ समय, स्थान व अध्यापकों की कमी है; इस विधि को नहीं अपनाया जा सकता।

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शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा Meaning and Definition of Education

HIndi notes on Meaning & Definition of Education – अनेक विद्वानों ने विभिन्न प्रकारों से शिक्षा की परिभाषा द है। समय के साथ-साथ शिक्षा की परिभाषा भी बदलती रहती है। वैदिक काल में शिक्षा सर्वांगीण विकास का एक अंग था , मध्यकाल में शिक्षा का अर्थ संकुचित हुआ वह धर्म से जुड़ गया।  आधुनिक युग में शिक्षा का उद्देश्य सर्वांगीण विकास की ओर बढ़ता जा रहा है।

Table of Contents

शिक्षा की परिभाषा

डॉ राधाकृष्णन ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा था कि

” शिक्षा व्यक्ति को और सामाजिक के सर्वतोन्मुखी विकास की सशक्त प्रक्रिया है। “

डॉक्टर थॉमस ने लिखा है

” शिक्षा भारत में विदेशी नहीं है , ऐसा कोई भी देश नहीं है जहां ज्ञान के प्रति प्रेम इतने प्राचीन समय में प्रारंभ हुआ हो या जिसने इतना स्थाई और सशक्त प्रभाव को उत्पन्न किया हो। वैदिक युग के साधारण कवियों से लेकर आधुनिक युग के बंगाली दार्शनिक तक शिक्षकों एवं विद्वानों की एक अविरल परंपरा रही है।”

भारत के आधुनिक शिक्षा शास्त्रियों की भांति प्राचीन शिक्षा शास्त्रियों ने भी शिक्षा की परिभाषा अनेक प्रकार से दी है –

1. शिक्षा का व्यापक अर्थ Wider meaning of education –

वैदिक कालीन शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया थी , जिसके लिए व्यापक दृष्टिकोण से अवधि की सीमा निश्चित नहीं थी। वैदिक काल में शिक्षा आयु के साथ-साथ समानांतर चलती थी। वैदिक कालीन शिक्षा में कक्षा , वर्ग का महत्व नहीं था।  वैदिक कालीन शिक्षा जीवन , राजनीतिक , सामाजिक , संगीत आदि पर आधारित थी। आधुनिक शिक्षा कक्षा , वर्ग अथवा आयु के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिसके कारण शिक्षा के स्तर में कमी आई है।

वैदिक कालीन शिक्षा जीवन पर्यंत चलती रहती थी।

मनुष्य जीवन पर्यंत विद्यार्थी का जीवन जीता था।

डॉ ए एस अलतेकर के अनुसार

” वैदिक युग से लेकर आज तक भारत में शिक्षा का मूल तात्पर्य यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ प्रदर्शक करती है। “

शिक्षा पर लिखे इन लेखों को अवश्य पढ़ें –

शिक्षा का समाज पर प्रभाव 

आधुनिक भारत और शिक्षा नीति

 शिक्षा का आलोक स्रोत – वैदिक कालीन शिक्षा गुरुकुल में प्राप्त की जाती थी।

शिक्षा प्राप्ति से पूर्व विद्यार्थी का उपनयन संस्कार किया जाता था उसके उपरांत गुरु को विद्यार्थी समर्पित हो जाया करता था। गुरु विद्यार्थी के जीवन को संवारने उसमें ज्ञान की ज्योति जलाने के लिए पूरी निष्ठा से यत्न किया करते थे।

गुरुकुल में

  • जीवन दर्शन ,
  • शस्त्र कौशल

आदि की उच्च कोटि की शिक्षा प्रदान की जाती थी।

विद्यार्थी सभी क्षेत्रों में परांगत हो ऐसा गुरु का विशेष ध्येय रहता था। वैदिक काल में शिक्षा का महत्व ज्ञान की प्राप्ति था वह ज्ञान जो आत्मा और परमात्मा में भेद कर सके। विद्यार्थी के लिए शिक्षा वह शिक्षा हुआ करती थी जिसको पाकर वह मोक्ष की प्राप्ति स्वयं कर सकता था। ” सा विद्या या विमुक्तये “ |

शिक्षा सुधार का अभिकरण –

प्राचीन काल में शिक्षा का अर्थ व्यापक रूप में लिया जाता था , शिक्षा आत्मविकास , आत्ममंथन अथवा सुधार की प्रक्रिया थी जो जीवन पर्यंत चलती थी। इसके माध्यम से एक व्यक्ति जीवन भर विद्यार्थी रहता था। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति का निरंतर सुधार तथा संस्कार होता रहता था। एक विद्वान का कथन है कि ” एक शिक्षक आजीवन छात्र बना रहता है। शिक्षा ज्ञान का वह भंडार है जो मनुष्य को मानव बनाती है और उसे पशु की तरह स्वार्थ परायण होने से रोकती है। ”

इसलिए विद्या विहीन व्यक्ति को पशुतुल्य कहा गया है।

विद्या के बिना मनुष्य विप्र का पूज्य पद कदापि प्राप्त नहीं कर पाता।

2. शिक्षा का संकुचित अर्थ Narrower meaning of education –

वैदिक काल में शिक्षा का जिस प्रकार व्यापक रूप से महत्व था उसी प्रकार शिक्षा का संकुचित रूप भी था। वैदिक कालीन शिक्षा का एक संकुचित अर्थ भी था , जिसके अनुसार शिक्षा के तात्पर्य उस शिक्षा से था जो बालक अपने प्रारंभिक जीवन के कुछ वर्षों तक गुरुकुल में रहकर गुरु का सानिध्य पाकर ब्रह्मचर्य जीवन को व्यतीत करता था और अपने गुरु से शिक्षा प्राप्त करता था। इस दौरान वह केवल उच्च शिक्षा को ही प्राप्त करता था जो उसके जीविकोपार्जन के लिए काफी नहीं था।

अर्थात शिक्षा संकुचित रूप में प्राप्त करता था।

इस शिक्षा का अर्थ औपचारिक शिक्षा से जो अधिकांश तक उसको पुस्तकों के द्वारा प्राप्त होती थी। मनुष्य ज्ञान के विभिन्न अंगों का अध्ययन करने के उपरांत भी अशिक्षित रह जाता था। वास्तविक शिक्षा जीविकोपार्जन की समस्या को हल नहीं करती थी। किंतु शिक्षा केवल जीविकोपार्जन  ही नहीं है इस प्रकार शिक्षा प्रकाश अंतर्दृष्टि तथा संस्कृति को प्रदान करते हुए हमें स्वावलंबी तथा आत्मनिर्भर नागरिक बनाती थी।

समग्रतः कह सकते हैं की – वैदिक कालीन शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत शिक्षा का तात्पर्य उस प्रक्रिया या अंतर्ज्योति तथा शक्ति से है जो विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास या व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं जैसे शारीरिक बौद्धिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं को संतुलित विकास करती है।

1813 और 1833 का आज्ञा पत्र | चार्टर एक्ट बी एड नोट्स | charter act full info

शिक्षा का उद्देश्य एवं आदर्श | वैदिक कालीन मध्यकालीन आधुनिक शिक्षा shiksha ka udeshy

  समाजशास्त्र  |  समाज की परिभाषा  |  समाज और एक समाज में अंतर 

शिक्षा और आदर्श का सम्बन्ध क्या है। शिक्षा और समाज

समाजशास्त्र। समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा। sociology

Education guidance notes शैक्षिक निर्देशन

काव्य। महाकाव्य। खंडकाव्य। मुक्तक काव्य

उपन्यास और कहानी में अंतर

कृपया अपने सुझावों को लिखिए | हम आपके मार्गदर्शन के अभिलाषी है  | 

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15 thoughts on “शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा Meaning and Definition of Education”

Shiksha pr achi post hai

keep loving keep coming

Nice post bahut badhiya smjhaya hai aapne mere liye kafi upyogi rha thank you

thanks david stay up to date

Thanks for this informational article. Please write more posts on Hindi educational notes.

Keep supporting and giving us your feedbacks.

अति आवश्यक हैं आपकी सहायता

Thank you sir for this informational article

बहुत ही सरल तरीका है आपका इससे मेरी बहुत हेल्प हुई समझने में। थैंक्स।।।

I am very thankful to sir I got more knowledge and making a good future

This article was informational but Please write more posts on Hindi educational notes Thanks

इस पोस्ट को लिखने के लिए आपका मैं धन्यवाद करना चाहूंगा. शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा बहुत विशेष तरीके से आपने समझाया है जिसके लिए मैं आभारी हूं.

Very Nicely explained article Meaning and definition of education in Hindi. Thank you once again for this well written article.

Sikha ek aisi amul anokhi chij h jo hme srvangin vikas me aage bdati hai

शिक्षा वह धन जो हमे अज्ञान से ज्ञान की तरफ अग्रसर करे

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assignment ka arth kya hai

अधिगम का अर्थ एवं परिभाषा,अधिगम के नियम,सिद्धांत

दोस्तों आज आपको मनोविज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पाठ अधिगम का अर्थ एवं परिभाषा,अधिगम के नियम,सिद्धांत आदि की विस्तृत जानकारी प्रदान करेंगे।

साथ ही साथ hindiamrit आपको अधिगम का अर्थ और परिभाषा,सीखने की परिभाषा,learning in hindi,सीखने के प्रकार,अधिगम की विशेषतायें,adhigam ka arth,adhigam ke prakar,adhigam bal manovigyan,अधिगम या सीखना मनोविज्ञान पाठ,सीखने का अर्थ,अधिगम के प्रकार,अधिगम के नियम,अधिगम के सिद्धान्त,अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक आदि की विस्तृत जानकारी प्रदान करेगा।

अधिगम का अर्थ / सीखने का अर्थ

प्रत्येक प्राणी में कार्य करने की प्रवृत्ति होती है। कार्यों के द्वारा वह अपने जीवन की रक्षा करता है। बालक सहज क्रियाओं और मूल प्रवृत्तियों के अनुसार सीखते हैं। व्यक्ति के अनुभव के आधार पर उसके कार्यों में परिवर्तन होता रहता है। अनुभव के इस प्रकार लाभ उठाने की क्रिया को अधिगम या सीखना कहते हैं। प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में कुछ ना कुछ सीखता है। जिस प्राणी में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है उतना ही अधिक उसके जीवन का विकास होता है। बालक प्रत्येक समय और प्रत्येक स्थान पर कुछ न कुछ सीखता रहता है।

अधिगम या सीखने की परिभाषाएं

वुडवर्थ के अनुसार

सीखना विकास की प्रक्रिया है।

गिलफोर्ड के अनुसार

व्यवहार के कारण व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना है।

स्किनर के अनुसार

अधिगम व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।

क्रो एंड क्रो के अनुसार

अधिगम आदतों ज्ञान अभिवृत्तियों का अर्जन है।

पावलव के अनुसार

अधिगम अनुकूलित अनुक्रिया के फल स्वरुप आदत का निर्माण है।

हिलगार्ड के अनुसार

पुराने अनुभव से व्यवहार में परिवर्तन अधिगम है।

गार्डनर के अनुसार

वातावरण के द्वारा व्यवहार में परिवर्तन अधिगम है।

कालविन के अनुसार

पहले के निर्मित व्यवहार में अनुभवों द्वारा हुए परिवर्तन को अधिगम कहते हैं।

प्रेसी के अनुसार

अधिगम एक अनुभव है जिसके द्वारा कार्य में परिवर्तनीय समायोजन होता है तथा व्यवहार के नवीन विधि प्राप्त होती है।

गेट्स एवं अन्य के अनुसार

अनुभव एवं प्रशिक्षण के द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को सीखना कहते हैं।

किंग्सले और गैरी के अनुसार

अभ्यास तथा प्रशिक्षण के फलस्वरुप नवीन तरीके से व्यवहार करने अथवा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं।

क्रोनबैक के अनुसार

अधिगम अनुभव के परिणाम स्वरूप व्यवहार में परिवर्तन द्वारा व्यक्त होता है।

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अधिगम या सीखने की विशेषताएं

(1) अधिगम एक प्रक्रिया है।

(2) अधिगम एक अभ्यास है।

(3) अधिगम के द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

(4) अधिगम सही प्रति चारों का चुनाव है।

(5) अधिगम सार्वभौमिक है।

(6) अधिगम परिवर्तन है।

(7) अधिगम विकास है।

(8) अधिगम अनुकूलन है।

(9) अधिगम निरंतर चलता रहता है।

(10) अधिगम की प्रक्रिया रचनात्मक है।

(11) अधिगम ज्ञानात्मक भावात्मक व क्रियात्मक है।

(12) अधिगम स्थानांतरणीय है।

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अधिगम के प्रकार / सीखने के प्रकार

सीखने के तीन प्रकार होते हैं

(1) ज्ञानात्मक अधिगम (2) संवेदात्मक अधिगम (3) गामक अधिगम

ज्ञानात्मक अधिगम

सीखने का यह तरीका बौद्धिक विकास तथा ज्ञान अर्जित करने की समस्त क्रियाओं पर प्रयुक्त होता है। ज्ञानात्मक अधिगम तीन प्रकार का होता है–

(1) प्रत्यक्षात्मक अधिगम

जब किसी बात को देखकर सुनकर स्पर्श करके उसका ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो उसे प्रत्यक्षात्मक सीखना कहते हैं। शैशवावस्था व बाल्यावस्था में इसी प्रकार से सीखते हैं।

(2) प्रत्यात्मक अधिगम

जब बालक साधारण ज्ञान या अनुभव प्राप्त कर लेता है। वह तर्क चिंतन और कल्पना के आधार पर सीखने लगता है। इस प्रकार वह अनेक अमूर्त बातें सीख जाता है इसी को प्रत्यात्मक सीखना कहते हैं।

(3) साहचर्य अधिगम

जब पूराने ज्ञान तथा अनुभव के द्वारा किसी तत्व को सीखा जाता है तो उसे साहचर्य सीखना कहते हैं।

संवेदात्मक अधिगम

उस सीखने को संवेदात्मक अधिगम कहते हैं जब सीखना संवेदनशील क्रियाओं द्वारा होता है। इस प्रकार के सीखने में गामक क्षमताओं का प्रशिक्षण होता है। इसमें किसी कौशल के कार्य को सम्मिलित किया जाता है। जैसे– तैरना,साइकिल चलाना, टाइप करना सीखना आदि।

जिस सीखने में अंग संचालन तथा गति पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है उसे गामक अधिगम कहते हैं। इसमें समस्त शारीरिक कुशलता के कार्य आते हैं। जैसे – देखना, सिर उठाना, बैठना चलना आदि।

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

(1) शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य

(2) सीखने की इच्छा

(3) प्रेरणा

(4) विषय सामग्री का स्वरूप

(5) वातावरण

(6) शारीरिक व मानसिक थकान

(7) सीखने की इच्छा

अधिगम की विधियां / सीखने की विधियां / methods of learning

(1) करके सीखना (2) अनुकरण द्वारा सीखना (3) निरीक्षण द्वारा सीखना (4) परीक्षण द्वारा सीखना (5) सामूहिक विधियों द्वारा सीखना (6) सहपाठी समूह अधिगम (7) निरीक्षण विधि (8) अनुकरण विधि (9) परीक्षण विधि (10) वाद विवाद विधि (11) पूर्ण विधि (12) अंश विधि (13) मिश्रित विधि (14) अंतराल विधि (15) सतत विधि (16) वाचन विधि (17)प्रयास एवं त्रुटि विधि (18) प्रगतिशील विधि

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अधिगम के नियम / सीखने के नियम

यह नियम थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादक किये गए हैं।

सीखने के नियम,अधिगम के नियम को दो भागों में बांटा गया है

(1) मुख्य नियम

(2) गौण नियम

मुख्य नियम तीन प्रकार के हैं

(1) तत्परता का नियम

(2) अभ्यास का नियम

(3) प्रभाव / संतोष / परिणाम का नियम

गौण नियम पांच प्रकार के होते हैं

(1) बहु प्रतिक्रिया का नियम

(2) मनोवृति का नियम

(3) आंशिक क्रिया का नियम

(4) सहचर परिवर्तन का नियम

(5) आत्मिक करण का नियम

अधिगम के सिद्धांत / सीखने के सिद्धांत

सीखने के सिद्धान्त,अधिगम के सिद्धान्त को हिलगार्ड ने अपनी पुस्तक theory of learning में लिखा है।

अधिगम के सिद्धांत निम्नलिखित हैं–

(1) प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत

प्रतिपादक – थार्नडाइक

(2) क्रिया प्रसूत का सिद्धांत

प्रतिपादक – स्किनर

(3) अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धांत

प्रतिपादक – पावलव

(4) अंतर्दृष्टि का सिद्धांत

प्रतिपादक – कोहलर

(5) प्रबलन का सिद्धांत

प्रतिपादक –हल

(6) संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत

प्रतिपादक – पियाजे

(7) संज्ञानात्मक अधिगम का सिद्धांत

प्रतिपादक – ब्रूनर

(8) सामाजिक विकास का सिद्धान्त

प्रतिपादक – वाइगोत्सकी

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अधिगम के सभी सिद्धान्त पढ़िये विस्तार से

थार्नडाइक का सिद्धान्त

प्रेरणादायक कहानी पढ़िये

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भाषा का अर्थ एवं प्रकृति (bhasha ke kitne roop hote hain)

bhasha ke kitne roop hote hain

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहते हुए वह सदैव विचार विनिमय करता है भाषा मानव भाव की अभिव्यक्ति का माध्यम है तथा अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य संसाधनों का प्रयोग करता है उसे ही सामान्यता भाषा कहते हैं यदि भाषा नहीं होती तो यह संसार निरुद्देशय एवं दिशाहीन हो जाता क्योंकि भाषा के अभाव में मानव अपने भावों की अभिव्यक्ति नहीं कर पाता अतः भाषा मानव को प्राप्त एक अमूल्य वरदान है इस संपूर्ण संसार में केवल मानव जाति को ही भाषा रूपी वरदान प्राप्त है किंतु डरविन जैसे विचारको का मत है कि भाषा ईश्वरीय वरदान नहीं है अपितु मानवीय कलाकृति है।

       अतः हम कह सकते है भाषा सार्थक ध्वनि की व्यवस्था है जिसके माध्यम से  वक्ता और श्रोता अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं भाषा ध्वनियों, शब्दों और बोलियों से विकसित होती है ।

भाषा की परिभाषा

संपूर्ण संसार में ज्ञान विज्ञान और सभ्यता संस्कृति का आधार भाषा ही है अतः हम कह सकते हैं कि भाषा व साधन है जिसके द्वारा हम बोलकर या लिखकर अपने मन के भाव और विचारों को दूसरों तक पहुंचाते हैं और दूसरे के भाव एवं विचारों को सुनकर या पढ़कर ग्रहण करते हैं विभिन्न विद्वानों ने भाषा की परिभाषा अपने शब्दों में विभिन्न प्रकार से दी है –

डॉक्टर बाबूराम सक्सेना के अनुसार – “जिन ध्वनि चिन्हों के द्वारा मनुष्य परस्पर विचार विनिमय करता है उनको समस्ती रूप से भाषा कहते हैं।”

काव्यादर्श के अनुसार – “यह समस्त तीनो लोक अंधकारमय हो जाते यादि शब्द रूपी ज्योति से यह संसार प्रदीप न होता।”

ब्लॉक और ट्रेजर के अनुसार – “भाषा उस व्यक्त वाणी चीह्न की पद्धति को कहते हैं जिसके माध्यम से समाज पर इस पर व्यवहार करता है।”

भाषा के कितने रूप होते हैं (भाषा के प्रकार)(bhasha ke kitne roop hote hain)

मनुष्य अपने विचारों का आदान प्रदान करने के लिए भाषा के तीन रूपों का प्रयोग करते हैं। भाषा के तीन रूप का नाम नीचे है। i. मौखिक भाषा ii. लिखित भाषा iii. संकेतिक भाषा

i. मौखिक भाषा : – भाषा का वह रूप जिसमें मनुष्य बोल कर अपने बातों को दूसरों तक पहुंचाता है और दूसरा व्यक्ति उनकी बातों को सुनकर समझता है उसे ही मौखिक भाषा कहते हैं। जैसे फोन में बातें करना, एक दूसरे से बात करना इत्यादि।

ii. लिखित भाषा : – जब मनुष्य अपनी बातों को या विचारों को लिखकर दूसरों तक पहुंचाते हैं और दूसरा व्यक्ति उनकी बातों को पढ़कर समझता है तो उसे ही लिखित भाषा कहते हैं जैसे पुस्तक पढ़ना समाचार पत्र पढ़ना व्हाट्सएप का मैसेज पढ़ना इत्यादि।

iii. संकेतिक भाषा : – संकेतिक भाषा का भाषा होती है जिसमें मनुष्य संकेतों के माध्यम से या इशारों के माध्यम से दूसरों की बातों को समझते हैं उसे ही संकेतिक भाषा कहते हैं जैसे ट्रैफिक लाइट गाड़ी को आते हुए देखकर हाथ हिलाना गुस्से में आंख दिखाना इत्यादि संकेतिक भाषा है।

भाषा की प्रकृति या विशेषताएं

भाषा के विकास तथा मानव के विकास का सीधा संबंध है भाषा भाव एवं विचारों की जननी तथा अभिव्यक्ति का माध्यम और साधन है। भाषा के कारण ही मानव इतना उन्नत प्राणी बन सका है। बुद्धि तथा विचार तथा चिंतन शक्ति के कारण ही मनुष्य भाषा का अधिकारी बना है तथा भाषा की प्रकृति स्वरूप एवं विशेषता के संबंध में हम निम्नलिखित बिंदुओं को देख सकते हैं – १. भाषा पैतृक संपत्ति नहीं है २. भाषा परंपरागत है व्यक्ति इसका अर्चन कर सकता है उत्पन्न नहीं कर सकता ३. भाषा का अर्जन अनुकरण के द्वारा होता है ४. भाषा आज संपत्ति है ५. भाषा सामाजिक वस्तु है ६. भाषा परिवर्तनशील है ७. भाषा का कोई अंतिम स्वरूप नहीं है ८. भाषा जटिल से सरलता की ओर जाती है

१. भाषा पैतृक संपत्ति नहीं है :- पैतृक संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है किंतु भाषा पैतृक संपत्ति नहीं है। यदि यह पैतृक संपत्ति होती तो प्रत्येक बालक जो भारत का निवासी है वह भारतीय भाषा ही बोलता किंतु यदि किसी भारतीय बच्चे को जन्म के कुछ दिन पश्चात इंग्लैंड भेज दिया जाए तो वह वहां भारतीय भाषा नहीं बोलेगा बल्कि वहां की भाषा बोलेगा इसलिए भाषा पैतृक संपत्ति नहीं है।

२. भाषा परंपरागत है व्यक्ति इसका अर्चन कर सकता है उत्पन्न नहीं कर सकता : – व्यक्ति भाषा को उत्पन्न नहीं कर सकता है उसमें परिवर्तन भले ही करते है पर भाषा का जन्म परंपरा और समाज से ही होता है यही भाषा की जननी  है।

३. भाषा का अर्जन अनुकरण के द्वारा होता है :- बच्चा मां से कई तरह की बातें सुन कर सकता है वह रोटी कहने का प्रयत्न करता है अनुकरण मनुष्य का सबसे बड़ा गोल है और हम अनुकरण के सहारे ही भाषा को सीखते हैं।

४. भाषा अर्जित संपत्ति है :- मनुष्य भाषा का अर्जुन अपने परिवार और वातावरण से करता है इसलिए जैसा वातावरण होता है वैसे ही मनुष्य की भाषा भी होती है।

५. भाषा सामाजिक वस्तु है :- भाषा का अर्जन समाज के संपर्क से ही होता है क्योंकि भाषा का जन्म समाज में ही होता है और प्रयोग भी समाज में ही होता है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे विचार विनिमय के लिए समाज में रहते हुए में भाषा की आवश्यकता पड़ती है।

६. भाषा परिवर्तनशील है :- वस्तुतः भाषा के मौखिक रूप को ही भाषा कहा जाता है लिखित रूप तो इसलिए पीछे पीछे चलती हैं भाषा को व्यक्ति अनुकरण के द्वारा सीखता है और या अनुकरण सदा पूर्ण होता है इसी कारण भाषा में हमेशा बदलाव या परिवर्तन होता है।

७. भाषा का कोई अंतिम स्वरूप नहीं है :- भाषा कभी भी पूर्ण नहीं होती अर्थात् यह कभी नहीं कहा जा सकता कि भाषा का अंतिम रूप कुछ और है भाषा से हमारा तात्पर्य जीवित भाषा से हैं।

८. भाषा जटिल से सरलता की ओर जाती है :- कोई भी मनुष्य कम परिश्रम में अधिक कार्य करना चाहता है मानव की यही प्रवृत्ति भाषा के लिए उत्तरदायी है। जैसे टेलीविजन को टीवी कहां कर काम चला लिया जाता है।

९. भाषा के माध्यम से मानव अपने ज्ञान को संक्षिप्त करता है प्रचार करता है और अभिवृद्धि भी करता है।

१०. भाषा के प्रमुख तत्व ध्वनियां, चीह्न एवं व्याकरण होते हैं भाषा के अंतर्गत सार्थक शब्द समूह को भी सम्मिलित किया जाता है।

११. भाषा मानवी कलाकृति हैं जिसका प्रमुख कौशल बोलना, पढ़ना, लिखना एवं सुनना है।

१२. भाषा मौखिक तथा लिखित प्रतीकों शब्दों और संकेतों की व्यवस्था है।

निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भाषा समाज से ही उत्पन्न हुई है और मनुष्यों ने इसे अपनी जरूरत के लिए बनाया है भाषा के तीन रूप होते हैं मौखिक लिखित और संकेतिक भाषा को मनुष्य अर्जित करते हैं इसे खुद ब खुद सीखते हैं भाषा वह साधन है इसके द्वारा मनुष्य अपने मन के भाव या कहे विचारों को या दुख दर्द को या खुशियों को दूसरों तक पहुंचाते हैं या उन्हें बताते हैं भाषा के बिना मनुष्य का जीवन अंधकार या जीवन ही या पशु के समान हो जाता है।

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अर्थशास्त्र किसे कहते हैं? | अर्थशास्त्र का अर्थ, परिभाषा व अर्थशास्त्र के प्रकार

|| अर्थशास्त्र क्या है? | Arthashastra kya hai | What is economic in Hindi | Economic in Hindi | अर्थशास्त्र को अंग्रेजी में क्या कहते हैं? | Arthashastra ka mahatva ||

Arthashastra kya hai :- आज हम बात करेंगे बहुत ही वृहद विषय अर्थशास्त्र के ऊपर। अर्थशास्त्र एक ऐसा विषय है जिस पर यह दुनिया चलती है और काम करती है। साथ ही इस विषय के बारे में हर किसी ने पढ़ा होता है। अब आप कहेंगे कि आपने तो किसी अन्य विषय में पढ़ाई की है या बारहवीं तक ही पढ़े हैं या कुछ और तो हम आपको बता दें कि अर्थशास्त्र विषय के जो सिद्धांत हैं वह हम अपने दैनिक जीवन में हमेशा इस्तेमाल करते (Economic in Hindi) हैं।

ऐसे में यह अर्थशास्त्र है क्या चीज़ और किस तरह से हमारे जीवन को प्रभावित करता है या फिर किस तरह से यह देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। ऐसी ही सभी तरह की बातों का उत्तर आपको इस लेख में जानने को मिलेगा जहाँ हम आपको अर्थशास्त्र के बारे में छोटी से छोटी जानकारी देंगे। अब जो लोग अर्थशास्त्र में ही पढ़ाई कर रहे हैं, उन्हें तो इसके बारे में बहुत जानकारी होगी और इसके लिए मोटी मोटी पुस्तकें भी होती (Arthashastra ka arth) है।

अब जैसा कि हमने आपको पहले ही बताया कि अर्थशास्त्र एक बहुत ही बड़ा विषय है और इसे एक अलग सब्जेक्ट या डिग्री के तौर पर पढ़ाया जाता है। ऐसे में इसे एक लेख में समेटना मुश्किल होता है किन्तु फिर भी हम आपको अर्थशास्त्र के बारे में सभी जरुरी कॉन्सेप्ट तथा रूपरेखा बता देंगे ताकि आप इसका अर्थ समझ सकें। आइये जाने अर्थशास्त्र के बारे में हरेक (Arthashastra meaning) जानकरी।

अर्थशास्त्र क्या है? (Arthashastra kya hai)

भारतीय इतिहास में बहुत पहले से ही अर्थशास्त्र के बारे में बात की गयी है और इसके बारे में विस्तृत वर्णन हमारे वेदों में भी मिलता है। सनातन धर्म में चार वेद हैं और वही सनातन धर्म के आधार स्तंभ भी हैं। इसमें जो सबसे आखिरी वेद है जिसे हम अथर्ववेद के नाम से जानते हैं उसमें अर्थशास्त्र के बारे में विस्तृत चर्चा की गयी है और इसके सिद्धांतो को बताया गया है। इसी के साथ ही हम आचार्य चाणक्य का भी उदाहरण ले सकते हैं जिन्हें अर्थशास्त्र का जनक माना जाता है। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाये रखने के आदर्श सिद्धांत प्रस्तुत किये (What is economic in Hindi) थे।

अर्थशास्त्र किसे कहते हैं अर्थशास्त्र का अर्थ, परिभाषा व अर्थशास्त्र के प्रकार

अब हम बात करते हैं इस अर्थशास्त्र के बारे में और जानते हैं कि आखिरकार यह है क्या चीज़। तो अर्थशास्त्र जो है वह दो शब्दों के मेल से बना है। अर्थशास्त्र संस्कृत भाषा का शब्द है जिसमें अर्थ का अर्थ पैसों या धन से होता है और शास्त्र का अर्थ उसके नियोजन, प्रबंधन या अध्ययन से। इस तरह से अर्थशास्त्र का अर्थ होता है धन या पैसों का प्रबंधन या अध्ययन किया जाना। मूल रूप से इसे धन का अध्ययन किया जाना कहा जाएगा। यही अ र्थशास्त्र की परिभाषा कही जा सकती (Arthashastra kya hai in Hindi) है।

तो एक तरह से अर्थशास्त्र का अर्थ होता है किसी भी देश या व्यक्ति विशेष के लिए उसके धन का अध्ययन कर उसके बारे में एक रिपोर्ट तैयार की जानी। अब कोई देश किस तरह से अपने यहाँ उपलब्ध संसाधनों व धन का अध्ययन कर उनका नियोजन करता है, उसका किस तरह से उपयोग करता है और किस तरह से आगे उनसे काम लेता है, उससे उसे क्या मिलता है, यह सब अर्थशास्त्र का ही हिस्सा होता है, आइये इसे और भी अच्छे से समझते (Economic kya hai) हैं।

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अर्थशास्त्र की परिभाषा (Arthshastra ki paribhasha)

आपने अर्थशास्त्र के बारे में तो जाना लेकिन अभी भी आपको इसके बारे में सही से पता नहीं चला होगा। ऐसे में हम आपके लिए सरल भाषा में अर्थशास्त्र की परिभाषा रखेंगे ताकि आप इसके अर्थ को सही से समझ (Economic kya hoti hai) सकें। इसके लिए हम अर्थशास्त्र की परिभाषा को तीन टुकडो में बांटने का काम करेंगे और फिर आपको समझायेंगे कि आखिरकार यह अर्थशास्त्र होती क्या चीज़ है, आइये जाने।

अब ईश्वर ने हमें मनुष्य रुपी शरीर तो दे दिया है लेकिन हम केवल अपने शरीर से ही तो काम नहीं चला सकते हैं ना। ना ही हम केवल प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रह सकते हैं जैसा कि पहले आदिवासी किया करते थे। अब इसी चीज़ के लिए ही धर्म की स्थापना हुई थी जिसमें जीवन जीने की एक प्रकृति बनायी गयी थी। इसी धर्म के साथ ही अर्थशास्त्र का कॉन्सेप्ट भी आया जिसमें प्राकृतिक चीज़ों के माध्यम से किसी चीज़ का उत्पादन करना शामिल था ताकि वह मनुष्य के काम में आ (Economic kya hota hai in Hindi) सके।

अब हम अपने आसपास जो भी चीज़ देखते हैं, वह प्राकृतिक तो होती नहीं है और उसे किसी ना किसी चीज़ का इस्तेमाल करके बनाया गया होता है। कहने का अर्थ यह हुआ कि किसी ना किसी फैक्ट्री, कारखाने इत्यादि में वह वस्तु निर्मित हुई होगी और तभी वह उपयोग के लायक हुई होगी।

अब जो वस्तु या उत्पाद का उत्पादन किया जा रहा है या उसका निर्माण किया जा रहा है, उसका वितरण करना भी तो जरुरी हो जाता है। इसमें आती है उस चीज़ को बेचे जाने की क्रिया अर्थात उसे बाजार में लोगों के लिए उपलब्ध करवाना। इस तरह से जिस चीज़ का निर्माण जिस भी उद्देश्य के तहत हो रहा है, अब उसे लोगों तक उपलब्ध करवाने की (Economic kya hai in Hindi) प्रक्रिया।

इसमें इस नियम का ध्यान देना होता है कि वह वस्तु किसके लिए बनायी गयी है, क्यों बनायी गयी है और उसे किन किन क्षेत्रों में वितरित करना होगा और किस मूल्य में वितरित करना होगा। उस वस्तु के क्या कुछ प्रकार हैं और वह किस व्यक्ति के क्या काम आ सकती है इत्यादि।

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अब किसी उत्पाद या वस्तु का निर्माण हो गया और वह वितरित भी हो गयी तो अर्थशास्त्र के अंतिम चरण में जो चीज आती है वह होती है उस वस्तु या उत्पाद का उपभोग किया जाना या उसका उचित उपयोग किया जाना। अब जिस चीज़ के लिए इतना परिश्रम हुआ और वह वस्तु बनायी गयी तो वह किसी ना किसी काम के लिए ही बनाई गयी होगी।

उदाहरण के तौर पर पेड़ों से लड़की को काट कर यदि किसी टेबल का निर्माण किया गया है तो वह लोगों के लिए काम करने या अन्य किसी उपभोग के लिए ही बनायी गयी होगी। ऐसे में जहाँ भी या जिस भी व्यक्ति को उस टेबल की आवश्यकता है, वहां पर उसका वितरण कर उपभोग किया जाना ही अर्थशास्त्र का हिस्सा होता है।

अब इस तरह से आपको अर्थशास्त्र की परिभाषा बहुत हद्द तक समझ में आ गयी होगी और यह भी समझ में आ गया होगा कि हम आपको क्या कहना चाह रहे हैं। एक तरह से ईश्वर ने जो हमें संसाधन दिए हैं, उनका उचित उपयोग किया जाना ही अर्थशास्त्र का हिस्सा होता है। अब ऊपर वाले पॉइंट में एक पॉइंट रह गया है जो वितरण से भिन्न है लेकिन अंत में उसका उपभोग ही होना होता है, आइये जाने उसके बारे में भी।

अब जिस भी उत्पाद का इस्तेमाल करना है तो उसका उत्पादन तो करना ही होगा और अंत में उसका उपभोग भी होगा। ऐसे में अर्थशास्त्र के दो प्रकार उत्पादन और उपभोग तो स्थायी रहते हैं लेकिन वितरण की जगह बहुत जगह विनिमय का भी इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में इस विनिमय का अर्थ होता है चीज़ों की अदला बदली की जाना। अब वितरण में तो आपको कोई चीज़ लेने के बदले में धन देना होता है लेकिन विनिमय में आपको अपनी कोई वस्तु देनी होती है।

उदाहरण के तौर पर आपको किसी से टेबल लेनी है और बदले में आपके यहाँ एक्स्ट्रा कुर्सी है जिसका मूल्य बराबर ही है तो आप दोनों एक दूसरे से टेबल व कुर्सी का लेनदेन कर सकते हैं। विनिमय तभी होता है जब आप दोनों को ही एक दूसरे की वस्तु की आवश्यकता होती है।

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अर्थशास्त्र को अंग्रेजी में क्या कहते हैं? (Arthashastra meaning in English)

आपको अर्थशास्त्र का अंग्रेजी शब्द भी पता होना चाहिए क्योंकि दुनियाभर में इसी शब्द का ही इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में आज हम आपको बता दें कि अर्थशास्त्र को अंग्रेजी में इकोनॉमिक्स कहा जाता है और आपने अवश्य ही इसका नाम सुन रखा होगा। वह इसलिए क्योंकि इस विषय में तो लोग अपने स्कूल में भी सब्जेक्ट पढ़ते हैं और आगे जाकर इसमें डिग्री भी ली जाती (Arthashastra in English) है। यहाँ तक कि कई तरह की डिग्री में इकोनॉमिक्स को पढ़ना जरुरी होता है जैसे कि बीकॉम, सीए, सीएस इत्यादि। ऐसे में यह बहुत ही ज़रूरी विषय होता है।

अर्थशास्त्र के प्रकार (Arthashastra ke prakar)

अब जब आपने अर्थशास्त्र की परिभाषा के बारे में जान लिया है तो अब बारी आती है अर्थशास्त्र के प्रकारों के बारे में जानने की। ऐसे में अर्थशास्त्र को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित करके अध्ययन किया जाता है और आज हम आपको उन्हीं दोनों प्रकारों के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाले (Arthashastra ke prakar bataiye) हैं।

व्यष्टि अर्थशास्त्र या माइक्रो इकोनॉमिक्स (Vyasti arthashastra in Hindi)

इस तरह का अर्थशास्त्र सूक्षम अर्थशास्त्र भी कहा जा सकता है क्योंकि इसका आंकलन व्यक्ति विशेष के आधार पर ही किया जाता है। अब जो अर्थशास्त्र होता है वह एक व्यक्ति से लेकर पूरे समाज, देश व दुनिया को प्रभावित करता है क्योंकि सभी इसी पर ही टिके हुए होते हैं। हर जगह काम हो रहा होता है और उस काम को हम लोग ही कर रहे होते हैं। अब कोई देश है तो उसमे उसकी जनसँख्या तथा उपलब्ध संसाधनों के आधार पर ही काम होता (Vyasti arthashastra kya hai) है।

ऐसे में उस व्यक्ति के काम से उस व्यक्ति का जीवन भी प्रभावित होता है तो वहीं उसका देश व दुनिया की अर्थशास्त्र भी प्रभावित होती है। ऐसे में उस व्यक्ति के बारे में या उसकी अर्थशास्त्र का अध्ययन करना, उसका काम देखना, उसके द्वारा चीज़ों को खरीदा जाना, उसका उपभोग किया जाना इत्यादि सभी कुछ व्यष्टि अर्थशास्त्र का ही एक हिस्सा होते हैं। इसे हम अंग्रेजी भाषा में माइक्रो इकोनॉमिक्स भी कह सकते (What is micro economics in Hindi) हैं।

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समष्टि अर्थशास्त्र या मैक्रो इकोनॉमिक्स (Samashti arthashastra ki paribhasha)

अब हमने ऊपर व्यक्ति विशेष के अर्थशास्त्र की तो बात कर ली लेकिन इसे वृहद् स्तर पर भी देखा जाना बहुत जरुरी हो जाता है क्योंकि किसी भी देश के लिए या दुनिया के लिए वही मायने रखता है। अब व्यक्ति तो बदले जा सकते हैं या उन्हें बाध्य किया जा सकता है या उनका शोषण किया जा सकता है या नीतियों में परिवर्तन लाया जा सकता है या कुछ और। ऐसे में जिन नीतियों या अर्थशास्त्र के जिस रूप के द्वारा उस देश को चलाया जा रहा है, वह बहुत ही मायने रखता (Samashti arthashastra kya hai) है।

ऐसे में वह देश या समाज किस तरह से कार्य कर रहा है, वहां कौन किस क्षेत्र में काम कर रहा है, वहां किस किस तरह के संसाधन हैं और उनका किस तरह से उपयोग किया जा रहा है, वहां पर प्रति व्यक्ति आय क्या है, उस देश की मुद्रा का क्या मुल्य है, वहां की आर्थिक विकास दर क्या है इत्यादि सभी आंकड़े या अध्ययन इसी समष्टि अर्थशास्त्र या मैक्रो इकोनॉमिक्स के अंतर्गत गिने जाते हैं। इसी कारण इसका नाम समष्टि अर्थशास्त्र रखा गया है अर्थात जिस अर्थशास्त्र में सभी का प्रवेश हो (What is macro economics in Hindi) जाए।

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व्यष्टि अर्थशास्त्र व समष्टि अर्थशास्त्र के बीच का अंतर (Difference between micro and macro economics in Hindi)

अब आपको दोनों तरह के अर्थशास्त्र के बीच का अंतर भी जान लेना चाहिए ताकि आप इसे बेहतर तरीके से समझ सकें। तो एक ओर जहाँ व्यष्टि अर्थशास्त्र किसी व्यक्ति के द्वारा किसी चीज़ में निवेश किये जाने और उसके उपभोग से संबंधित होता है तो वहीं समष्टि अर्थशास्त्र को देश के नीति निर्धारण के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। अब व्यष्टि अर्थशास्त्र के द्वारा यह देखा जाता है कि किस तरह के व्यक्ति के लिए किस तरह के उत्पाद का निर्माण किया जाना या किस तरह की सेवा दी जानी उचित (Vyasi aur samashti me antar) रहेगी।

उदाहरण के तौर पर आप कई तरह के शैम्पू को बाजार में देखते होंगे। अब इसमें से कोई लिंग आधारित होता है तो कोई किसी बीमारी के लिए तो किसी की कोई अन्य विशेषता होती है। अब इसमें बाल टूटने से बचाने, रूखे बालों के लिए इत्यादि चीज़ों के लिए होते हैं। ऐसे में यदि बाजार में किसी तरह के शैम्पू की ज्यादा माँग है तो कंपनी क्यों किसी अन्य शैम्पू का निर्माण करेगी। ऐसे में व्यक्ति विशेष की माँग को समझना ही व्यष्टि अर्थशास्त्र का हिस्सा होता है।

वहीं दूसरी ओर समष्टि अर्थशास्त्र में समूचे राष्ट्र का अध्ययन किया जाता है। इसके तहत केंद्र सरकार योजनाएं बनाती है ताकि राष्ट्र की उन्नति करवायी जा सके। इसके लिए अलग अलग योजना, स्कीम, नीति इत्यादि बनायी जाती है और उनमे नियम जोड़े जाते हैं। इसके अनुसार देश को चलाने का कार्य होता है और उसी से ही देश की राष्ट्रीय आय व अन्य आंकड़े निकल कर सामने आते हैं। यही समष्टि अर्थशास्त्र होता है।

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अर्थशास्त्र की विशेषता (Arthashastra ki visheshta)

अब आपको यह भी जान लेना चाहिए कि आखिरकार इस अर्थशास्त्र की क्या कुछ विशेषताएं होती हैं अर्थात इससे क्या कुछ निकल कर सामने आता है। अब अर्थशास्त्र को किसी एक पैमाने पर नहीं आँका जाता है और ना ही यह हमें एक तरह का आंकड़ा देती है। आज भी अर्थशास्त्र एक अध्ययन का विषय है और इस पर छात्रों को पढ़ाया जाता है ताकि वे अपने देश को एक बेहतर अर्थशास्त्र प्रदान करने में अपना योगदान दे (Arthashastra ki visheshta bataiye) सकें।

इसके लिए सबसे उत्तम पुस्तक महान अर्थशास्त्री आचार्य चाणक्य के द्वारा लिखी गयी थी जिन्हें हम कौटिल्य के नाम से भी जानते हैं। किन्तु यह देश का दुर्भाग्य ही है कि 800 वर्षों की गुलामी में से जो 600 वर्षों की बर्बर व क्रूरतम इस्लामिक गुलामी हमारे देश ने सही, उस दौरान मुगल आक्रांताओं के द्वारा देश का लगभग साहित्य व खोज नष्ट कर दी (Economic specialty in Hindi) गयी। यह केवल हमारे देश के लिए ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के लिए एक अपूर्णीय क्षति थी। फिर भी आज हम अर्थशास्त्र के बारे में कुछ विशेषताएं आपके सामने रखने जा रहे हैं।

  • अर्थशास्त्र के द्वारा ही किसी देश की जीडीपी का आंकलन किया जाता है जिसे हम सकल घरेलू उत्पाद के नाम से जानते हैं।
  • इसी के द्वारा ही राष्ट्रीय आय का भी आंकलन किया जाता है और किसी देश को किस वित्तीय वर्ष में कितनी आय हुई और उसमे से कितना भुगतान हुआ, यह देखा जाता है।
  • अर्थशास्त्र के द्वारा ही यह देखा जाता है कि अगले वित्तीय वर्ष के लिए सरकार की क्या रणनीति होगी या किन किन क्षेत्रों में कितना तक का निवेश किया जाएगा।
  • किसी देश की अर्थशास्त्र ही यह निर्धारित करती है कि वहां पर किस किस तरह की योजनाएं चलायी जाएँगी और देश कल्याण के क्या कुछ कार्य होंगे।
  • अर्थशास्त्र ही बताती है कि उस देश में बाजार भाव क्या रहेगा अर्थात किसी चीज़ का मूल्य कितना रहेगा और कितना नहीं।
  • इसी के द्वारा ही यह देखा जाता है कि विभिन्न वस्तुओं पर सरकार के द्वारा कितने प्रतिशत का कर या टैक्स लिया जाएगा या फिर उसे कर से मुक्त किया जाएगा।
  • ब्याज का क्या सिद्धांत रहने वाला है और कितने प्रतिशत ब्याज मिलेगा, यह भी अर्थशास्त्र की ही एक विशेषता या अंग है।
  • न्यूनतम मजदूरी कितनी होगी और उस देश के श्रमिकों को और क्या कुछ सुविधाएँ मिलेंगी यह भी अर्थशास्त्र का ही हिस्सा होता है।
  • उस देश की मुद्रा का मूल्य कितना होगा और अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में कितना अंतर होगा यह भी उस देश के अर्थशास्त्र पर ही निर्भर करता है।
  • देश की बैंकिंग नीति क्या होगी और वह किन नियमों का पालन करते हुए आगे बढ़ेगी, यह भी अर्थशास्त्र का ही एक अंग है।
  • राजकीय कोष कितना रहने वाला है, देश की मौद्रिक नीति क्या होगी इत्यादि सभी अर्थशास्त्र का ही हिस्सा होते हैं।

एक तरह से व्यक्ति, समाज, राज्य व देश से जुड़े वह सभी अंग जो पैसों के प्रबंधन से जुड़े हुए होते हैं, वे सभी ही अर्थशास्त्र का हिस्सा होते हैं। इसी के आधार पर ही सभी तरह के निर्णय लिए जाते हैं और आगे बढ़ा जाता है।

अर्थशास्त्र का महत्व (Arthashastra ka mahatva) 

अब हम बात करने वाले हैं अर्थशास्त्र के महत्व के बारे में और इसके जरिये हम यह जानेंगे कि आखिरकार किसी देश के लिए या व्यक्ति विशेष के लिए अर्थशास्त्र क्यों इतनी जरुरी होती है और इससे उसे क्या कुछ लाभ देखने को मिल सकते (Economic importance in Hindi) हैं। एक तरह से हम सभी के लिए अर्थशास्त्र का क्या कुछ महत्व होता है, इसके बारे में जानने का समय आ गया है।

  • किसी भी देश के स्थायी विकास के लिए अर्थशास्त्र का आंकलन किया जाना और उसके अनुसार नीति निर्देशों का बनाया जाना बहुत ही ज्यादा जरुरी होता है।
  • उस देश के नागरिकों का उत्थान करने के लिए अर्थशास्त्र की जरुरत होती (Economic value in Hindi) है।
  • अर्थशास्त्र का योगदान प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने और उनके द्वारा खरीदने की क्षमता को विकसित करने में भी होता है।
  • बाजार में वस्तुओं के मूल्य निर्धारण करने में भी अर्थशास्त्र की ही भूमिका प्रमुख होती है।
  • यदि देश पर आर्थिक संकट आ खड़ा हुआ है और अर्थव्यवस्था डगमगा रही (Arthashastra ka mahatva bataiye) है तो उस स्थिति में भी बेहतर अर्थशास्त्र की योजना ही इससे निपटारा दिलवा सकती है।
  • कच्चे माल को सही जगह पर सही समय पर पहुंचाने में भी अर्थशास्त्र की ही भूमिका होती है। तभी तो चीज़ें निर्मित हो पाती है और हम सभी उसका उपभोग कर पाने में सक्षम होते हैं।
  • बाजार में प्रतिस्पर्धा बनाये रखने में भी अर्थशास्त्र का ही योगदान होता है जिस कारण व्यक्ति को ज्यादा से ज्यादा चीजें कम दाम में उपलब्ध हो जाती है।

इसी तरह से अर्थशास्त्र के एक नहीं बल्कि कई लाभ होते हैं जो उसके महत्व को हमारे सामने रखते हैं। एक तरह से जिस देश की अर्थव्यवस्था बेहतर होती है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वहां अर्थशास्त्र की गहरी समझ रखने वाले लोग उस देश को चला रहे हैं और उसको लेकर नीति निर्देश बना रहे हैं।

अर्थशास्त्र क्या है – Related FAQs 

प्रश्न: अर्थशास्त्र को आप क्या समझते हैं?

उत्तर: अर्थशास्त्र के बारे में संपूर्ण जानकारी को हमने इस लेख के माध्यम से बताने का प्रयास किया है जिसे आपको पढ़ना चाहिए।

प्रश्न: भारत में अर्थशास्त्र का पिता कौन है?

उत्तर: भारत में अर्थशास्त्र के पिता चाणक्य को माना जाता है।

प्रश्न: अर्थशास्त्र के जनक का क्या नाम है?

उत्तर: अर्थशास्त्र का जनक एडम स्मिथ है।

प्रश्न: अर्थशास्त्र के 2 प्रकार कौन से हैं?

उत्तर: अर्थशास्त्र के 2 प्रकार हैं व्यष्टि अर्थशास्त्र और समष्टि अर्थशास्त्र।

तो इस तरह से इस लेख के माध्यम से आपने अर्थशास्त्र के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली है। आपने जाना कि अर्थशास्त्र क्या है अर्थशास्त्र के प्रकार क्या हैं अर्थशास्त्र की विशेषता और महत्व क्या है इत्यादि। आशा है कि जो जानकारी लेने आप इस लेख पर आए थे वह आपको मिल गई होगी। यदि अभी भी कोई शंका आपके मन में शेष रह गई है तो आप हम से नीचे कॉमेंट करके पूछ सकते हैं।

लविश बंसल

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Definition of अर्थ.

पुं० [सं०√अर्थ (याचन आदि)+अच्] १. अभिप्राय, उद्देश्य या लक्ष्य। २. वह अभिप्राय, भाव या वस्तु जिसका बोध पाठक या श्रोता को कोई शब्द, पद, या वाक्य पढ़ने या सुनने पर अथवा कोई भाव भंगी या संकेत देखने पर होता है। माने। (मीनिंग) ३. धन-संपत्ति। ४. जन्म-कुंडली में लग्न से दूसरा घर। ५. पाँचों इंद्रियों के ये पाँच विषय-गंध, रूप, रस, शब्द और स्पर्श। वि० सामाजिक क्षेत्र में, लोगों के स्वकीय अधिकारों और उपचारों से संबंध रखनेवाला, (आपराधिक, राजनीतिक आदि से भिन्न। (सिविल) जैसे—अर्थ-व्यवहार। (सिविल केस) अव्य० लिए। वास्ते। जैसे—यह संपत्ति देव-कार्य के अर्थ समर्पित है

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Synonym/Similar Words : भूल करना , आवारा , शीर्षक , आयात करना , आवर्जन , खुला घूमना , अर्थ/अभिप्राय , बुलाया जानाना , फैलाना , मकानो के भीतर जाने का मार्ग , डींग मारना , तरंगित होना , दावा करना , बेसिर पैर की बातें करना , फैला रहना , घूमना , आयात , महत्त्व , नाटक या फिल्म के कलाकार , टहल , माल जहाज , बुलाया जानाना , गतिबल , राजहंस , मतलब , विचारधारा , आयात करना , आन्दोलन , इधर उधर भटकना

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बुद्धि का अर्थ, परिभाषा, बुद्धि के प्रकार और बुद्धि के सिद्धांत

बुद्धि, शब्द मनोविज्ञान की दुनिया में ही नहीं बल्कि एक व्यक्ति और समाज के लिए भी अहम भूमिका निभाता है।

व्यक्ति के कार्य करने करने की कुशलता, सटीकता जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में बुद्धि का बहुत बड़ा योगदान रहता है।

इस पोस्ट में हम बुद्धि का अर्थ क्या है? बुद्धि की परिभाषा। बुद्धि के प्रकार और बुद्धि के सिद्धांतों के बारे में विस्तार से जानेंगे।

बुद्धि का अर्थ

वेश्लर के अनुसार बुद्धि की परिभाषा, रॉबिन्सन के अनुसार बुद्धि की परिभाषा, स्टोडार्ड के अनुसार बुद्धि की परिभाषा, बुद्धि की विशेषताएँ एवं तथ्य.

  • अमूर्त बुद्धि
  • मूर्त या स्थूल बुद्धि
  • सामाजिक बुद्धि
  • बुद्धि का एक-तत्त्व सिद्धान्त
  • बुद्धि का द्वि-तत्व सिद्धान्त
  • बुद्धि का बहु-तत्त्व सिद्धान्त
  • बुद्धि का समूह-तत्त्व सिद्धान्त
  • बुद्धि का प्रतिदर्श सिद्धान्त
  • बुद्धि का क्रमिक महत्त्व सिद्धान्त
  • बुद्धि का त्रि-आयाम सिद्धान्त

बुद्धि एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग हम अपने आम जीवन की दिनचर्या में करते हैं। लेकिन जितना हम अपने जीवन में बुद्धि के अर्थ को समझते हैं, बाल विकास, शिक्षाशास्त्र और मनोवैज्ञानिक में इसका अर्थ और महत्व कहीं ज्यादा है।

बुद्धि अंग्रेजी शब्द Intelligence का हिन्दी वर्जन है। Intelligence लैटिन भाषा का शब्द है जो कि लैटिन भाषा के दो शब्दों Inter एवं Legere से मिलकर बना है।बुद्धि के अर्थ के बारे में मनोवैज्ञानिकों के बीच मतभेद है, जिससे बुद्धि के किसी एक अर्थ में सहमति नहीं है।

बुद्धि का सरल शब्दों में अर्थ है कि– किसी कार्य, स्थिति में उपलब्ध सभी विकल्पों में से सबसे ज्यादा बेहतर और अनुकूलित विकल्प का चुनाव करके अपने लक्ष्य को हासिल करना।

बुद्धि की परिभाषाएँ

बुद्धि के अर्थ की तरह ही बुद्धि की परिभाषा में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने मत दिए हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की परिभाषा को वातावरण के साथ समायोजन करने की क्षमता के आधार पर परिभाषित किया गया है।

वहीं बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की परिभाषा को पर्यावरण के साथ समायोजन से न जोड़कर, बुद्धि को सीखने की क्षमता के रूप में और कुछ विद्वानों ने अमूर्त चिन्तन (मन में सोचना) करने की क्षमता के रूप में बुद्धि को परिभाषित किया है।

लेकिन बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की परिभाषा को केवल एक चीज से न जोड़ने के बजाय संयुक्त रूप से जोड़कर परिभाषित किया है उनमें से कुछ महत्वपूर्ण बुद्धि की परिभाषाओं को नीचे दिया गया है–

बुद्धि एक समुच्चय या सार्वजनिक क्षमता है, जिसके सहारे व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण क्रिया करता है, विवेकशील चिन्तन करता है और वातावरण के साथ प्रभावकारी ढंग से समायोजन करता है – वेश्लर
बुद्धि से तात्पर्य संज्ञानात्मक व्यवहारों के सम्पूर्ण वर्ग से होता है, जो व्यक्ति में सूझ-बूझ द्वारा समस्या का समाधान करने की क्षमता, नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करने की क्षमता, अमूर्त रूप से सोचने की क्षमता और अनुभवों से लाभ उठाने की क्षमता को दिखलाता है। – रॉबिन्सन
बुद्धि उन क्रियाओं को समझने की क्षमता है, जिनकी विशेषताएँ कठिनता, जटिलता, अमूर्तता, मितव्ययिता, किसी लक्ष्य के प्रति अनुकूलनशीलता, सामाजिक मान और मौलिकता की उत्पत्ति होती है, और कुछ परिस्थिति में ऐसी क्रियाओं को, जो शक्ति की एकाग्रता तथा सांवेगिक कारकों के प्रति प्रतिरोध दिखलाती हैं, करने की प्रेरणा देती है। – स्टोडार्ड

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह समझा जा सकता है की बुद्धि वह सामान्य योग्यता तथा विभिन्न मानसिक योग्यताओं का समन्वय है, जो व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन में सफल होने में सहायक सिद्ध होती है।

यहाँ पर बुद्धि की प्रमुख विशेषताओं के बारे में बताया गया है, जो कि निम्नलिखित हैं–

• बुद्धि मनुष्य की कई विशेषताओं और क्षमताओं को दर्शाता है।

• बुद्धि के सहारे ही व्यक्ति किसी समस्या के समाधान तक पहुँचता या पहुँचने का प्रयास करता है।

• बुद्धि व्यक्ति को वातावरण के समायोजन करने में मदद करती है।

• बुद्धि के सहारे ही व्यक्ति अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसके अनुरूप कार्य करता है, और निर्णय लेता है।

• बुद्धि से व्यक्ति को विवेकशील चिन्तन तथा अर्मूत चिन्तन करने में भी मदद मिलती है।

• बुद्धि व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की बातों को सीखने में सहायता प्रदान करती है।

• मनुष्य की बुद्धि पर उसके आस-पास के वातावरण का अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रभाव पड़ता है।

बुद्धि पर वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है । विभिन्न शोधों के निष्कर्षों से पता चलता है कि अच्छे वातावरण में पोषित बच्चों की बुद्धि लब्धि अधिक होती है।

बुद्धि के प्रकार

थॉर्नडाइक एवं गैरेट ने बुद्धि को तीन प्रकार में बाँटा है जो कि निम्नलिखित हैं–

1. अमूर्त बुद्धि

अमूर्त बुद्धि व्यक्ति की ऐसी बौद्धिक योग्यता जिसकी मदद से गणित, शाब्दिक, या सांकेतिक समस्याओं का समाधान किया जाता है।

अमूर्त बुद्धि का प्रयोग करके हम पढ़ने, लिखने एवं तार्किक प्रश्नों में करते हैं। कवि, साहित्यकार, चित्रकार आदि लोग अमूर्त बुद्धि से ही अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।

2. मूर्त या स्थूल बुद्धि

मूर्त या स्थूल बुद्धि के द्वारा व्यक्ति विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का व्यावहारिक एवं उत्तम प्रयोग करने की क्षमता अर्जित करता है।

मूर्त बुद्धि को व्यावहारिक यान्त्रिक बुद्धि भी कहा जाता है। हम अपने दैनिक जीवन के ज्यादातर कार्य मूर्त बुद्धि की ही सहायता से करते हैं।

3. सामाजिक बुद्धि

सामाजिक बुद्धि से तात्पर्य उन बौद्धिक योग्यताओं से जिसका उपयोग कर व्यक्ति सामाजिक परिवेश के साथ समायोजन स्थापित करने में करता है।

बुद्धि के सिद्धान्त

आज के समय में बुद्धि के अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं। बुद्धि के इस समय प्रचलित सिद्धान्तों में से प्रमुख सिद्धान्तों को नीचे दिया गया है जो कि निम्नलिखित हैं–

  • बुद्धि का द्वि-तत्त्व सिद्धान्त

1. बुद्धि का एक-तत्त्व सिद्धान्त

बुद्धि के एक-तत्व सिद्धान्त को बिने ने दिया था। मनोवैज्ञानिक बिने ने बुद्धि को एक इकाई माना है, जिसके अनुसार व्यक्ति की विभिन्न मानसिक योग्यताएँ एक इकाई के रूप में काम करती हैं।

बीने के बुद्धि के एक तत्व सिद्धांत को मोनारिच सिद्धान्त भी कहते हैं। बुद्धि के मोनारिच सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि केवल एक ही तत्त्व से बनती है और सभी क्षेत्रों में एक ही बुद्धि व्याप्त है। यह सिद्धान्त पूर्ण रूप से सही नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कोई व्यक्ति अगर विज्ञान में कुशल है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह कला में भी कुशल होगा।

2. बुद्धि का द्वि-तत्व सिद्धान्त

बुद्धि के द्वि-तत्व सिद्धान्त को स्पीयरमैन ने दिया था। मनोवैज्ञानिक स्पीयरमैन के अनुसार बुद्धि दो तत्त्वों से मिलकर बनी होती है। बुद्धि के यह दो तत्व – (1) सामान्य तत्त्व (2) विशिष्ट तत्त्व हैं।

बुद्धि के द्वि-तत्व सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में एक सामान्य तत्त्व होते हैं, जो विशिष्ट तत्त्वों से सम्बन्धित होते हैं। जिस व्यक्ति का सामान्य तत्त्व, विशिष्ट तत्त्व से जितना उत्तम रूप से सम्बन्धित होता है, उस व्यक्ति में उतनी ही अधिक बुद्धि होती है।

3. बुद्धि का बहु-तत्त्व सिद्धान्त

बुद्धि का बहु-तत्त्व सिद्धान्त का प्रतिपादन थॉर्नडाइक ने किया था। थॉर्नडाइक ने बुद्धि के द्वि-तत्व सिद्धान्त का खण्डन करते हुये कहा कि बुद्धि सिर्फ दो चींजों से मिलकर नहीं बनी, बल्कि बुद्धि की रचना बहुत से छोटे-छोटे तत्त्वों या कारकों के मिलने से हुई है।

थॉर्नडाइक के बुद्धि का बहु-तत्त्व सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कारक या तत्त्व एक-दूसरे से स्वतन्त्र होता है, और एक विशिष्ट मानसिक क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है।

थॉर्नडाइक आंकिक योग्यता, शाब्दिक योग्यता, दिशा-योग्यता, तर्क योग्यता, स्मरण शक्ति व भाषण योग्यता जैसे बुद्धि के कुछ मूल तत्व भी बताएं जो कि बुद्धि के सामान्य तत्व से भिन्न थे।

4. बुद्धि का समूह-तत्त्व सिद्धान्त

बुद्धि के समूह-तत्त्व सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक थर्स्टन ने दिया था। बुद्धि के इस समूह-तत्त्व सिद्धान्त को कारक विश्लेषण सिद्धांत भी कहते हैं।

थर्स्टन ने बुद्धि को प्राथमिक योग्यताओं के कई समूहों में विभाजित किया, जिनमें हर समूह की योग्यताओं में से से एक प्राथमिक तत्व होता है।

थर्स्टन ने बुद्धि के समूह-तत्त्व सिद्धान्त में बुद्धि के समूह-तत्त्व सिद्धान्त में कुल नौ तत्वों को बताया जो कि निम्नलिखित हैं–

  • मौखिक तत्त्व या शाब्दिक तत्त्व
  • प्रेक्षण तत्व
  • अंक सम्बन्धी तत्त्व
  • शाब्दिक-प्रवाह सम्बन्धी तत्त्व
  • स्मृति शक्ति तत्त्व
  • प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी तत्त्व
  • तार्किक तत्त्व
  • निगमन तर्क तत्त्व
  • आगमन तर्क तत्त्व

थर्स्टन के बुद्धि के समूह-तत्त्व सिद्धान्त के अनुसार दो मूल तत्त्वों में जितना अधिक सह-सम्बन्ध होता है, उनके बीच उतना ही अधिक हस्तान्तरण भी होता है।

5. बुद्धि का प्रतिदर्श सिद्धान्त

बुद्धि का प्रतिदर्श सिद्धान्त को थॉमसन ने दिया था। थॉमसन के बुद्धि का प्रतिदर्श सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि कई स्वतन्त्र तत्त्वों से मिलकर बनी होती है।

व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए अपनी सम्पूर्ण बुद्धि का प्रयोग न करके केवल उसके एक प्रतिदर्श का प्रयोग करता है।

थॉमसन के बुद्धि का प्रतिदर्श सिद्धान्त के अनुसार प्रतिदर्शों में जो सम्बन्ध होता है वह सभी योग्यताओं के स्वतन्त्र मिश्रण के कारण से आता है।

6. बुद्धि का क्रमिक महत्त्व सिद्धान्त

वर्नोन व बर्ट ने मिलकर बुद्धि का क्रमिक महत्त्व सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। बुद्धि के इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक मानसिक योग्यता को क्रमिक महत्त्व प्रदान किया गया है।

बुद्धि का क्रमिक महत्त्व सिद्धान्त

बुद्धि के इस सिद्धांत मे सबसे पहले क्रम में सामान्य मानसिक योग्यता आती है, और उसके बाद विशिष्ट योग्यता आती है।

7. बुद्धि का त्रि-आयाम सिद्धान्त

बुद्धि का त्रि-आयाम सिद्धान्त को 1967 में गिलफोर्ड ने दिया। गिलफोर्ड के इस बुद्धि का त्रि-आयाम सिद्धान्त को त्रिविमीय सिद्धान्त या बुद्धि संरचना सिद्धान्त भी कहते हैं।

गिलफोर्ड ने त्रिविमीय सिद्धान्त या बुद्धि संरचना सिद्धान्त, थॉर्नडाइक व स्पीयरमैन के सिद्धान्तों से अलग हटकर कारकों या तत्त्वों को तीन विमाओं में बाँटा है जो कि निम्लिखित है–

गिलफोर्ड बुद्धि का त्रि-आयाम सिद्धान्त

संक्रिया :-

यह व्यक्ति द्वारा की गई मानसिक प्रक्रिया के स्वरूप से सम्बन्धित होता है। संक्रिया को पाँच भागों में बाँटा गया है, जिनमें प्रत्येक के 5 कारक या तत्व हैं–

Sr. No.विमाकारक
मूल्यांकन5
अभिसारी चिन्तन5
अपसारी चिन्तन5
ज्ञान5
स्मृति5

विषयवस्तु :-

विषयवस्तु में सूचनाओं के आधार पर संक्रियायें की जाती हैं। इन सूचनाओं को चार भागों में बाँटा गया है, जिनमें प्रत्येक के 4 कारक या तत्व हैं–

Sr. No.विमा
आकार
सांकेतिक
शाब्दिक
व्यावहारिक

उत्पादन अर्थ किसी विशेष प्रकार की विषय-वस्तु द्वारा की गयी संक्रिया के परिणाम से होता है। गिलफोर्ड ने उत्पादन को छः भागों में बाँटा है, जो कि निम्नलिखित हैं, जिनमें प्रत्येक के 6 कारक या तत्व हैं–

Sr. No.विमा
इकाई
वर्ग
सम्बन्ध
पद्धतियाँ
रूपान्तरण
प्रयोग

इस प्रकार गिलफोर्ड के अनुसार बुद्धि के कुल = 5 x 4 x 6 = 120 कारक या तत्त्व होते हैं।

ये भी पढ़ें :- • बुद्धि का विकास • बुद्धि मापन और बुद्धि परीक्षण एवं प्रकार • शाब्दिक बुद्धि परीक्षण और अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण में अंतर • वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण और सामूहिक बुद्धि परीक्षण में अंतर

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स्वतंत्रता का अर्थ, परिभाषा, प्रकार/वर्गीकरण

स्वतंत्रता का अर्थ (swatantrata kya hai).

swatantrata meaning in hindi ;स्वतंत्रता शब्द का अंग्रेजी पर्याय  " लिबर्टी " लेटिन भाषा का " लिबर " शब्द से बना है जिसका अर्थ मुक्त या स्वतंत्र या बन्धनों का अभाव होता है।  

स्वतंत्रता का सही अर्थ प्रो. लाॅस्की के अनुसार, " उस वातावरण की स्थापना से है जिसमे मनुष्यों को अपने पूर्ण विकास के लिए अवसर प्राप्त होते है।

राजनीतिशास्त्र की शायद ही कोई ऐसी समस्या हो जिसके संबंध में विद्वानों में इतना मतभेद पाया जाता हो जितना स्वतंत्रता के संबंध में देखने को मिलता हैं। प्रत्येक युग में विचारक स्वतंत्रता की समस्या पर विचार करते रहे हैं और अलग-अलग अर्थ लगाते आये हैं।  

स्वतंत्रता के दो अर्थ लागाये जाते हैं--

1. स्वतंत्रता की नकारात्मक धारणा 

'स्वतंत्रता', जिसे अंग्रेजी में 'लिबर्टी' कहते हैं, लैटिन भाषा में 'लाइबर' शब्द से बना हैं, जिसका अर्थ उस भाषा में 'बन्धनों का अभाव' होता है। इस धारणा के अंतर्गत स्वतंत्रता का अर्थ हैं-- 'प्रतिबन्धों का न होना' यानि की व्यक्ति के कार्यों पर किसी भी प्रकार का बंधन न हो। मनुष्य जो चाहे कर सके। सामाजिक समझौता सिद्धांत के समर्थक हाॅब्स और रूसों के मतानुसार प्राकृतिक अवस्था में इस प्रकार की स्वतंत्रता थी। मनुष्य पर किसी प्रकार रोक-टोक नहीं थी। रूसो की अमर कृति "सामाजिक समझौता" का पहला वाक्य ही सही हैं-- 'मनुष्य स्वतंत्र जन्मा हैं', हाॅब्स के अनुसार," स्वतंत्रता का अभिप्राय विरोध और नियंत्रण का सर्वथा अभाव हैं। किन्तु स्वतंत्रता का अर्थ भ्रमात्मक हैं। इस प्रकार की स्वतंत्रता राॅबिन्सन क्रूसों जैसे व्यक्ति को ही मिल सकती है जो एक निर्जन स्थान पर अपने साथी फ्राइड के साथ एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा था। सभ्य समाज में ऐसी स्वतंत्रता संभव नही हैं। 

2. स्वतंत्रता की सकारात्मक धारणा  

स्वतंत्रता के नकारात्मक दृष्टिकोण में विश्वास करने वाले मानते है कि स्वतंत्रता का अर्थ है सभी प्रकार के नियंत्रणों का अभाव, परन्तु यह अर्थ संतोषजनक नहीं हैं, क्योंकि इस अर्थ में स्वतंत्रता केवल प्राकृतिक अवस्था तथा अराजकता में रहने वालों को ही अनुभव हो सकती हैं। समाज में रहने वाले व्यक्तियों को इस अर्थ में स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती। सही रूप में स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पर्याप्त सुअवसर या परिस्थितियाँ प्रदान करना। ये अवसर या सुविधाएं राज्य ही प्रदान कर सकता हैं, अएएव सकारात्मक स्वतंत्रता  राज्य में ही संभव हैं। ऐसी स्वतंत्रता सीमित होती हैं, न कि असीमित। ऐसी स्वतंत्रता केवल वैयक्तिक नहीं, सामाजिक हित की दृष्टि से प्रदान की जाती हैं। 

स्वतंत्रता की परिभाषा (swatantrata ki paribhasha)

मैकियावली के अनुसार " सब प्रकार के बन्धनों का अभाव नही अपितु अनुचित के स्थान पर उचित प्रतिबन्ध (बन्धन) की व्यवस्था ही स्वतंत्रता है। 

सीले के अनुसार, " स्वतंत्रता अतिशासन का विरोधी है।

जी. डी. एच. कोल के अनुसार, " बिना किसी बाधा के अपने व्यक्तित्व को प्रगट करने के अधिकार का नाम स्वतंत्रता है।

स्पेन्सर के अनुसार, " प्रत्येक मनुष्य वह करने को स्वतंत्र है जो वह करना चाहे। बशर्ते वह किसी अन्य मनुष्य की समान स्वतंत्रता का हनन न करें।" 

मैकेन्जी के अनुसार, " स्वतंत्रता सब प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव नहीं हैं, बल्कि तर्करहित प्रतिबन्धों के स्थान पर तर्कयुक्त प्रतिबन्धों की स्थापना हैं।" 

लास्की के अनुसार, " आधुनिक सभ्यता में जो सामाजिक परिस्थितियाँ व्यक्ति के सुख के लिए आवश्यक हैं, उन पर प्रतिबंध का अभाव ही स्वतंत्रता हैं।" 

ग्रीन के अनुसार, " स्वतंत्रता उन कार्यों को करने अथवा उन वस्तुओं का उपभोग करने की शक्ति हैं जो करने अथवा उपभोग करने योग्य हों।" 

गेटेल के अनुसार, " स्वतंत्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन चीजों को करके आनंद प्राप्त होता हैं, जो करने योग्य हों।

स्वतंत्रता के प्रकार (swatantrata ke prakar)

1. राजनीतिक स्वतंत्रता  

राज्य की राजनीतिक प्रक्रिया मे स्वतंत्रतापूर्वक सक्रिय भाग लेने की स्वतंत्रता राजनीतिक स्वतंत्रता कहलाती है। लास्की ने इस प्रकार की स्वतंत्रता की परिभाषा करते हुए कहा है, " राजनीतिक स्वतंत्रता का अभिप्राय राज्य के कार्यों व्यापारों मे सक्रिय भाग लेने के अधिकार से है। 

2. आर्थिक स्वतंत्रता  

प्रत्येक व्यक्ति को जीविका कमाने की समुचित सुरक्षा व सुविधा प्राप्त होना आर्थिक स्वतंत्रता है।

3. प्राकृतिक स्वतंत्रता  

प्राकृतिक स्वतंत्रता से तात्पर्य उस स्वतंत्रता से है जो व्यक्ति को प्रकृति द्वारा प्रदान की गई है। यह स्वतंत्रता राज्य की स्थापना से भी पहले प्रकृति की ओर से लोगों को प्राप्त होती है। 

4. नागरिक स्वतंत्रता  

नागरिक स्वतंत्रता वह स्वतंत्रता है जो व्यक्ति को समाज और राज्य के सदस्य के रूप मे प्राप्त होती। नागरिक स्वतंत्रता की गारंटी राज्य देता है। 

5. व्यक्तिगत स्वतंत्रता  

व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति को स्वयं के निजी कार्यों, विश्वासों और मामलों मे स्वतंत्रता। उदाहरण के लिए व्यक्ति के रहन-सहन, धर्म, विश्वास, वेशभूषा, परिवार आदि के मामलों मे राज्य या किसी अन्य व्यक्तियों द्वारा किसी प्रकार का हस्तक्षेप नही किया जाना चाहिए।

6. स्वाभाविक स्वतंत्रता  

यह स्वतंत्रता मानव स्वभाव के अनुरूप होती है। रूसो और तिलक इसी प्रकार की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। तिलक ने इसीलिए कहा है कि स्वंतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। रूसो का कहना है कि मनुष्य प्राकृतिक युग (राज्य के जन्म के पूर्व से) इसी स्वतंत्रता का उपयोग कर रहा है। अब तो समाज के विकास से वह बन्धनों  मे जकड़ गया है। 

7. सामाजिक स्वतंत्रता  

यह स्वतंत्रता व्यक्ति को समाज मे प्राप्त होती है। वास्तव मे समाज का जन्म ही इसलिए हुआ है कि समाज मे रहने वाले सभी लोगों को यह स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहियें, जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। इस स्वतंत्रता के अंतर्गत जीवन और संपत्ति की सुरक्षा, आवागमन की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता इत्यादि आती है। 

8. सांस्कृतिक स्वतंत्रता

यह भी एक प्रकार की सामाजिक स्वतंत्रता है जिसमे किसी समाज मे रहने वालों को अपनी संस्कृति को बनाये रखने, उसकी रक्षा करने तथा समृद्ध करने की स्वतंत्रता प्राप्त होती है।

9. राष्ट्रीय स्वतंत्रता  

राष्ट्रीय स्वतंत्रता द्वारा परतंत्र राष्ट्र अपना शासन अपने आप करने का राजनीतिक अधिकार प्राप्त करता है। साम्राज्यवाद से मुक्ति पाने के लिए राष्टों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है। जैसा कि भारत को 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिन से मुक्ति के बाद राष्ट्रीय स्वतंत्रता या स्वाधीनता प्राप्त हुई है।

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8 टिप्‍पणियां:

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svadhinta kya he

Ppt banai hoti to or accha hota

Swatantra ka varnan Apne shabdon mein Karen

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